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• जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार ?
बस! वो क्षण मेरे जीवन की यादगार दास्तान बन गयी। मैं उसके बाद इंग्लैण्ड की धरती पर वर्षों तक रहा, विदेशों में बहुत घूमा, लेकिन शराब या मांसाहार के सामने आंख भी नहीं उठाई।
मैं इस प्रकार मोहमयी मुंबई में कॉलेजियन जीवन में भी प्रबल पुण्य योग से जुआ और परस्त्री के भयंकर पाप से भी नौ गज दूर रहा। यह सब धर्म संस्कार का सिंचन करनेवाली माता का प्रताप है।
एक बात का मुझे आज भी दुःख होता है, कि जैन कुल में जन्म लेने के बावजूद कंदमूल आदि अनंतकाय, वासी, द्विदल, अभक्ष्य, अचार आदि का कड़क प्रतिबंध, स्थानकवासी संप्रदाय के कुछ ढ़ीले नियमों के कारण नहीं होने से रात्रि भोजन, बर्फ, आईस्क्रीम, आलु, शकरकंद, गाजर आदि अनतंकाय तथा बहु बीज फलों का सेवन, वासी, द्विदल आदि की मर्यादाओं का खुलेआम भंग करने का पाप मेरे जीवन में बिना रोक-टोक फल - फुल गया।
इस प्रकार मेरी जीवन नैया पाप के समुद्र में डगमगा रही थी। फिर भी किसी पुण्य घड़ी में त्रिकरण शुद्ध हृदय से किये गये पुण्य के उदय से डूबते को पाटिये के समान मेरा विवाह पालनपुर के चुनीलाल न्यालचन्द मेहता (जो चुस्त मूर्तिपूजक आचरण वाले थे) की सुपुत्री मंजुला के साथ हुआ। वह मेरे आज के धार्मिक जीवन के प्रारंभ की एक महत्त्व की कड़ी है।
यदि मेरी पत्नी के रूप में संस्कारी सुश्राविका मंजुला नहीं होती, तो मेरा जीवन कैसा होता? इसका विचार ही मन में खलबली उत्पन्न कर देता है।
इस प्रकार स्थानकवासी संप्रदाय में जो अमुक श्रावक जीवन से संबंधित प्रभुपूजा, बीतराग प्रभु की भक्ति, भक्ष्याभक्ष्य विवेक, विशिष्ट तपश्चर्या और जीवन को विरति धर्म की ओर ले जाने वाली सही चाबियों की मेरे जीवन में कमी थी, वह मूर्तिपूजक माता-पिता के कुल के संस्कारों से समृद्ध विवेकी, विनयी, सुशील, संस्कार संपन्न, मंजुला जैसी सुश्राविका को पत्नी के रूप में प्राप्त करने से दूर हो गयी और पाप
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