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- जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार? दुर्गुण दूर होते हैं और जीवन में धर्म की वृद्धि होती जाती है। नवकार की प्राप्ति से पूर्व जो आर्त-रौद्र ध्यान के मध्य में सटोरिये की तरह अपना जीवन बिताने वाले वे आज श्रावक की उच्चतम कक्षा रूपी संवासानुमति श्रावकपने के नजदीक की भूमिका में रात-दिन धर्म साधना युक्त निवृत्त जीवन व्यतीत कर रहे हैं। (4) अन्तर्मुख वृत्ति
नवकार की साधना में चौथी बात "मन की चौकीदारी" है। साधक मैत्री भाव से मन को शुद्ध कर नवकार गिनने बैठता है, तो भी पुनः इस मन में दूसरा प्रवेश न कर पाए, इसका प्रहरा रखना अनिवार्य है। छद्मस्थ मनुष्य का मन पानी जैसा भावुक द्रव्य है। कोई भी निमित्त मिलते, उसमें बहने में उसे देर नहीं लगती है।
मानवी अर्थात् शरीर, मन और आत्मा। शरीर और आत्मा के बीच में है, मन। यह वकील जैसा है, जिसका अपना कोई पक्ष नहीं है। यह शरीर के साथ मिलकर शरीर का विचार करता है तब, शरीर, पुद्गल एवं कर्म का पक्ष दृढ़ करता है, आत्मा के साथ मिलकर वह आत्मा का विचार करता है, तो आत्मा को जीत दिलाता है। उसकी शरीर और शरीर से संबंध रखने वाली अन्य बाबतों का विचार-चिंता करने की जन्मजात आदत है। आत्मा और उसके साथ संबंध रखने वाली बातों का ध्यान | रखना उसके लिए नया कार्य है, इसलिए मन बार-बार पुराने स्थान पर जाता है। साधक को निरंतर ध्यान रखना चाहिये कि मन किससे मिल रहा है, इसमें कौनसे विचार चल रहे हैं?
मन की शुद्धि एक प्रमुख आधार है। शारीरिक रोगों से भी मानसिक रोग ज्यादा व्यापक होते हैं। हम शरीर की चिकित्सा करवाते हैं, किन्तु मन की चिकित्सा कौन करवाता है? शरीर के कई रोग मन की विकृति से ही उत्पन्न होते हैं। हम आज इस पर बहुत कम ध्यान दे रहे हैं। वास्तव में तो मन की चिकित्सा करनी चाहिये, मन को शुद्ध रखने हेतु उसकी जाँच बहुत जरुरी है।
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