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-जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार? - (2) साधना का "फ्यूज" ___ नमस्कार की साधना का दूसरा महत्त्व का अंग है, मन की शुद्ध भूमिका। जिनबिंब विराजमान करने हेतु जिन मन्दिर बनाना हो तो उसके लिए भी शुद्ध भूमि का प्रबंध करना पड़ता है, तो अशुद्ध मनोभूमि में अरिहंत आकर कैसे बैठेंगे? ... (1) खुद के पूर्व के दुष्कृत (गलत कार्यों) की निंदा-गर्दा
(2) स्वयं के एवं दूसरों के सुकृत (अच्छे कार्यों) की अनुमोदना (3) जगत के सभी जीवों के लिए अपनी आत्मा तुल्य मैत्रीभाव
यह हैं, मनोभूमि को शुद्ध करने के साधन। जीव का अशुभ वृत्तियों एवं गलत प्रवृत्तियों में जो अनादि का प्रेम हे वह दुष्कृत की निन्दा करने से कमजोर होता है। उसमें हो रही अपनी भूल समझ में आती है और उससे उन वृत्तियों का अनुबंध रुक जाता है।
सुकृत की अनुमोदना से अच्छी वृत्ति और प्रवृत्ति के प्रति अपना प्रेम व्यक्त होता है और उसका अनुबंध होने से अपनी आत्मा में ऐसी शुभ वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों की वृद्धि होती है।
सकल जीवराशी के प्रति आत्मतुल्य मैत्रीभाव रखने से ईर्ष्या, वैमनस्य, वैर, विरोध आदि अशुभ चित्तवृत्तियों का नाश होता है। हमने |देखा कि गुलाबचन्दभाई सकल जीवराशी के प्रति मैत्रीभावना अपनी साधना का "फ्यूज" मानते हैं। किसी को दो शब्द कह दिये हों या किसी को इनके प्रति दुर्भाव जन्मे ऐसा कुछ निमित्त बन गया हो, तो उनकी साधना का फ्यूज उड़ जाता है। वे कहते हैं "ऐसा कुछ बनता है, तब आप तो उत्तम आत्मा हो, भूल मेरी ही है, यह कहकर तुरंत क्षमापना कर लेता हूँ।"
इस तरह शुद्ध बनी हुई मनोभूमि में रहा हुआ नवकार का बीज फल-फूलकर, संसार में भी आत्मा को सुख में झीलाता है और अंत में मोक्षफल देकर ही विराम लेता है। बीज उत्तम हो किंतु बंजर भूमि में
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