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- जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार? ही हैरान-परेशान, किन्तु मुझे किसी की भी शर्म नहीं थी। प्रत्येक जन रोकते-टोकते, किन्तु हमारे तो काम ऐसे के ऐसे। मेरा व्यवसाय नहीं था। किन्तु ट्युशन करवाकर उसके पैसे जुआ और दारु में उड़ाता। पत्नी घर पर खाखरे बनाकर, बाल मन्दिर के 150 छात्रों का नाश्ता बनाकर, बच्चों को पालती, घर चलाती। मैं उसके पास से भी मारपीट कर पैसे लेकर दारु-जुआ में उड़ाता। ऐसा पिछले दो वर्षों से चलने से कहने वाले तंग हो गये। सौगन्ध, मानता, जो हो सके, वह भी सगे सम्बंधियों ने करके देखा। | दोरे-धागे भी करके देखे, किन्तु पत्थर पर पानी। एक बहिन ने कहा, "मन्दिर में प. पू. आचार्य श्री दर्शनसागरसूरीश्वरजी म.सा. पधारे हैं। उनके बाल मुनिराज श्री दिव्यानन्दसागरजी म.सा. को पढ़ाने के लिए एक शिक्षक की जरूरत है। भाई! तुम जाओ तो सही।" में गया। वहां दूसरे कई शिक्षक जाकर आये थे। मैंने भी एक दिन मुनिराज श्री दिव्यानन्दसागरजी को पढ़ाया। नहीं मानने जैसी बात बनी। बहुत शिक्षकों में से प.पू. आचार्य गुरुदेव श्री दर्शनसागरसूरीश्वरजी ने मेरा चयन किया। मुझे बहुत ही आश्चर्य हुआ। मन्दिर के प्रमुख ट्रस्टी मुझे 'पागल'-'दारुड़िया' कहकर बुलाते एवं जानते थे। उन्होंने विरोध किया होगा, ऐसा मैं मानता हूँ। किन्तु पता नहीं मुझे ही प.पू. आचार्य साहेब ने नियुक्त किया।
में दूसरे ट्युशनों में तो दारु पीकर जाता। किन्तु अच्छा पढ़ाता और सही ढंग से रहता। उससे परेशानी नहीं आती थी। किन्तु मन्दिर में किस प्रकार जाऊँगा? यह विचार आया। मैं तो दारु पीकर ही मुनिराज को पढ़ाने गया। प. पू. गुरुदेव श्री को तो पता पड़ ही गया। सप्ताह चला। एक दिन दोपहर में प. पू. गुरुदेव ने कहा, "कांतिभाई! तुम जो कर रहे हो, वह अच्छा नहीं है। तुम जैन भाई होकर दारु पीते हो, यह अच्छा नहीं कहा जा सकता है। फिर भी मुझे एक वचन दो कि जब तुम दारु या जुआ खेलो तब केवल पांच नवकार बोलोगे।" मैंने कहा, "हां साहेब, कमाल है, म.सा. इसमें कौनसी बड़ी परेशानी है? नवकार बोलकर फिर दारु पिउंगा।" मुझे कोई परेशानी नहीं होगी, ऐसा समझकर मैंने हाथ जोड़कर नवकार मंत्र केवल एक बार बोलने की सौगन्ध ली। प. पू.
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