SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार? परदेश में रहते एक भाई पर हदय रोग का हमला हुआ। उसे इंग्लैण्ड के एक अस्पताल में दाखिल किया। उन्हें ऑपरेशन थियेटर में ले जाया गया। हदय बंद हो गया था। डॉक्टर ने जाँच कर बताया, "HE IS DEAD" (वह मर गया है)उनके शरीर के उपर कपड़ा ढक दिया। सगे-सम्बंधियों को खबर दी और लाश सौंपने के लिए तैयारी होने लगी। स्ट्रेचर पर देह रखकर ऑपरेशन थियेटर से बाहर आये। उतने में ढके हुए कपड़ों में से आवाज आयी, "नमो अरिहंताण!" डॉक्टरों एवं सगे-सम्बंधियों को भारी आश्चर्य हुआ। कपड़ा दूर किया। उस भाई ने आंखें खोलीं। सभी को देख कर बोल उठे, "नमो अरिहंताणं"। बैठकर सभी को बताया कि "इतने समय तक मैं पूज्य गुरु महाराज के पास था। "उन्होंने मुझे नवकार गिनने के लिए कहा। मैं नवकार गिनता रहा था। मैंने कहा, 'मुझे देर हो रही है, मुझे जाने दो। सभी मेरी राह देख रहे होंगे।' किन्तु गुरु महाराज ने मुझे रोके रखा। फिर भी मैं आज्ञा लेकर वापिस आ गया हूँ।" यह सुनते ही सभी झुक पड़े। आज भी यह भाई स्वस्थ हैं। मिलते हैं, तब कहते हैं कि "अब मैं दो बातों में मजबूत बन गया हूँ। मौत चाहे तब आये, मौत का गम नहीं है। दूसरा पूज्य गुरुदेव की कृपा से नवकार मेरा प्राण बन गया है। मैं श्वास-श्वास में उसका स्मरण करता रहता हूँ।" ऐसे तो कितने ही दृष्टांत जगत में देखने को जानने को मिलेंगे। शास्त्रों में लिखा है कि, "जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार?" इस संसार में कषाय रूपी ताप से पीड़ित, कर्मरूपी मैल से मलिन, तृष्णारूपी, तृषा से तृषातुर बने हुए जीव को सच्चा विश्राम देने वाला नमस्कार महामंत्र ही है। ज्ञानी भगवान कहते हैं कि, इस असार संसार में यदि कोई सारभूत वस्तु हो, तो वह एक नवकार मंत्र ही है। श्री नवकार जैन शासन का सार है। चौदह पूर्व का सम्यग् उद्धार है। सभी मंगलों में प्रथम मंगल है, सभी श्रेयों में प्रथम श्रेय है। वह घोर उपसर्गों को भी नाश करता है। दुःख को नष्ट करता है। 227
SR No.032466
Book TitleJiske Dil Me Navkar Use Karega Kya Sansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahodaysagarsuri
PublisherKastur Prakashan Trust
Publication Year2000
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy