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- जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार? - दौड़ाई तो वह समूह आगे ही आगे बढ़ रहा था।
विराट पुनः विचारों की गहरी दुनिया में घूमने निकल पड़ा। "क्या | मेरे दादा से मेरा मिलन नहीं होगा? क्या मैं शत्रुजय के सुखद-स्पर्श से |वंचित ही रहूँगा? नहीं, नहीं, ऐसा करने से दादा का मिलन नहीं होगा।
इस स्पर्श से मैं क्यों वंचित रहूं। इस टोले से अलग होकर यदि मैं | सोनगढ़ की राह पकडूं तो मेरा दादा से मिलन अवश्य होगा और शत्रुजय का स्पर्श भी मुझे अवश्य मिलेगा।'
विराट की विचारमाला रुक गई। उसने चारों ओर नजर डाली, सोनगढ़ स्टेशन के सिग्नल अच्छी तरह दिखाई दे रहे थे। दूर-दूर स्टेशन से रवाना हुई ट्रेन का काला धुंआ और ट्रेन की सीटी की आवाज सुनाई देती थी।
विराट ने वहां से पलायन करने का विचार किया, मन को मजबूत बनाया और उसने सोनगढ़ की ओर वापिस मुड़ने के लिए कमर कसकर मेहनत की, किंतु उसके वे प्रयत्न कामयाब नहीं हुए, इसके कदम स्थिर बनकर रह गये। सोनगढ़ की तरफ वापिस मुड़ने की वे साफ-साफ मना कर रहे थे। अन्त में विराट थक गया। मन और तन के संग्राम में तन ने |मन को शिकस्त दी। विराट इस समूह की ओर नजर डालकर आगे बढ़ने लगा। वह समूह हँसता तो पार्श्व भूमि में मानो एक अट्टहास फैल गया हो, ऐसे माहौल का निर्माण हो जाता था। वह समूह कदम बढाता तो ऐसे |लगता था कि मानो धरती कांप रही हो।
विराट का मन मजबूर था! लाचार था! असहाय था! उस समूह के पीछे जाने को विराट का मन मानता नहीं था, फिर भी कोई अज्ञात बल उसे समूह की ओर धकेलता था और विराट मजबूर होकर उस की ओर जा रहा था।
महामंत्र नमस्कार इसके होठों के आंगन पर खेल रहा था। भगवान आदिनाथ की प्रतिमा उसकी आंखों के आगे प्रत्यक्ष होती थी और तीर्थ सम्राट श्री शत्रुजय का पहाड़ उसके स्मृति-पट पर खड़ा-खड़ा आशिष दे
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