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जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार ?
ऐसा ही जवांमर्द था । " हिम्मत से मर्दा तो मदद में खुदा ।" जिसमें शौर्य होता है, हिम्मत होती है, जवांमर्दी होती है, ऐसे जवांमर्दों की सहायता खुदा भी करना है। विराट में शौर्य था, जवांमर्दी थी, तो फिर इसका रक्षण महामंत्र करे, इसमें आश्चर्य क्या! विसनगर था उसका वतन ! उम्र मात्र पन्द्रह वर्ष !
विराट अभी तो पैदा होकर खड़ा हुआ था ! शैशव का श्रृंगार अभी तो उसके शरीर पर ही था! फिर भी उसके दिलो-दिमाग में नमस्कार महामंत्र के प्रति अटूट श्रद्धा थी। वह महामंत्र का अनन्य भक्त था ! महामंत्र के भक्ति गीत सदैव उसके दिल में गूँजते थे।
एक बार पन्द्रह वर्ष की उम्र में विराट के मन में तीर्थाधिराज शत्रुंजयकी महायात्रा करने की उत्कण्ठा जगी । उसके स्मृति-पट पर भगवान आदिनाथ की अलबेली प्रतिमा खड़ी हो गई। 'दादा' का वह मुखारविन्द ! वह विशाल काया ! वह अनोखी अस्मिता से शोभते अधर ! और करुणा बहाते यह नयन युगल ! ऐसी मधुर स्मृति विराट के दिलो-दिमाग में बैठ गई। मानो शत्रुंजय विराट को पुरानी याद दिला रहा था। उसके उर का ऊर्मि - तंत्र भी मानो उसे यात्रा करने हेतु निकलने की आवाज दे रहा था। उर के ऊर्मितंत्र की आवाज को भला कौन मना कर सकता है?
एक दिन विराट ने शत्रुंजय यात्रा के लिए प्रयाण कर दिया। भगवान आदिनाथ के दर्शन हेतु तरसते उसके तन-मन कुछ आनन्द महसूस कर रहे थे। विराट पन्द्रह वर्ष की उम्र में अकेला यात्रा के लिए निकल पड़ा। उसने विसनगर से शत्रुंजय की ओर जाने वाली ट्रेन में अपनी बैठक जमायी ।
ट्रेन एक के बाद एक स्टेशन से होकर आगे बढ़ रही थी ! विराट का मानस भी कोई सुहावनी स्वप्नसृष्टि की यात्रा में चला गया था।
विराट ट्रेन में बैठे-बैठे भी शत्रुंजय की मानसिक यात्रा कर रहा था। इसके मानसपटल के समक्ष शत्रुंजय का पहाड़ उपस्थित होता था
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