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•जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार?
ठाकुर ने हमें जगाया। हमें लगा, वापिस भटकन कहां से आयी ?
उतने में तो ठाकुर को आवाज आई "हम तुमको मुक्त करते हैं, तुम अभी ही चले जाओ।"
यह क्या! यह सत्य था कि स्वप्न ! हम आंखें मसल रहे थे, आज नौ तारीख की रात है। राजेन्द्र इतना जल्दी आ गया ? लाख रूपये की फिरौती क्या डाकुओं को मिल गयी? वहाँ तो गोपी वापिस बोला, "खड़े हो जाओ! हम तुमको मुक्त कर देते हैं। "
अप्रत्याशित मुक्ति के पीछे के रहस्य का हम विचार करें, इससे पहले ही गोपी के साले एवं दो तीन किसानों ने हमको सहानुभूति बताई और हम उसी रात चंबल की घाटी को सलाम कर चलते बने।
कौन सी शक्ति ने हमको मुक्ति दिलाई ? चंबल की चंगुल में से हमको छुड़ाने का भार किसने वहन किया? हमें समझ में नहीं आ रहा था ! प्रश्न का जवाब हमने आकाश के तारों से पूछा, तो जवाब के रूप में हमारे कानों में "महामंत्र" के शब्द घूमने लगे और आंखों के सामने शंखेश्वर पार्श्वनाथ के इस मन्दिर की एवं मूर्ति की अभय देने वाली आकृति उपस्थित हो गयी !
आठ बजे प्रारंभ किया वह प्रवास एकदम मध्य रात 12 बजे तक अनवरत चार घंटे चला और एक गाँव में हमारा आतिथ्य तय हुआ । चार घंटे के इस प्रवास में जमुना का छाती तक पानी आ गया था, किन्तु इस समय तो उस में भी सुख का अनुभव हो रहा था । कीचड़ भरे खेत भी पार किये । कोई राह, बिना कंकर-कांटों की नहीं थी। फिर भी हमें वह मार्ग मक्खन समान लगा । हम दस जनवरी को सुबह आगरा पहुंचे। हमारे इस अप्रत्याशित आगमन को राजेन्द्र और स्वजनों ने हर्ष के आंसुओं से अभिनन्दित किया। एक कमरे में हम सब थोड़ी देर रोते ही रहे। चंबल की घाटियां अभी तक आंखों से दूर नहीं होती थीं। कुछ अनुभव, कई प्रसंग, ऐसे बन जाते हैं कि, मणिमुक्ता की तरह उनका संरक्षण भी दिल की तिजौरी में ही हो सकता है।
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