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________________ निसीहज्झयणं = , प्रायश्चित होगा- दो मास बीस दिनरात बीस दिनरात तीन मास दस दिनरात । पुनः यदि द्वैमासिक प्रायश्चित्तस्थान का सेवन करे तो कुल सानुग्रह आरोपणा होगी-तीन मास दस दिनरात + बीस दिनरात = चार मास । तात्पर्य यह है कि एक बार स्थापिता आरोपणा को वहन करते हुए अनेक बार सानुग्रह प्रायश्चित्त भी दिया जाता है और द्वैमासिक परिहारस्थान के उपर्युक्त क्रम से वृद्धि होने पर वह पांचवीं बार में पाण्मासिक प्रायश्चित्त तक पहुंच जाता है। वर्तमान में तपः प्रायश्चित्त की उत्कृष्ट कालावधि भी इतनी ही है। ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत 'बीसरात्रिकी आरोपणा पद' आलापक के पूर्ववर्ती छह सूत्रों में 'तेण परं' वाक्यांश 'उसके बाद' अर्थ में प्रयुक्त है, जबकि इन पांच सूत्रों में इसी वाक्यांश का अर्थ है-जिसे संयुक्त करने पर । ८. सूत्र ३०-३५ पूर्वोक्त सूत्रों के समान इन सूत्रों में भी प्रस्थापिता आरोपणा के छह निदर्शन प्रस्तुत हैं। षाण्मासिक यावत् एकमासिक प्रायश्चित्त वहन करने वाला भिक्षु यदि मासिक परिहारस्थान की प्रतिसेवना कर आलोचना करे तो उसे सानुग्रह आरोषणा के रूप में पाक्षिक प्रायश्चित्त आता है। उसके पश्चात् पुनः उसी प्रकार के परिहारस्थान की १. निभा. भा. ४ चू. पृ. ३८९,३९० उद्देशक २० : टिप्पण प्रतिसेवना करने पर निरनुग्रह आरोपणा प्राप्त होती है - अन्यूनातिरिक्त डेढ़ मास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ९. सूत्र ३६-४४ पूर्वोक्त सूत्रों में मासिक परिहारस्थान से प्राप्त डेढ़ मासिक प्रायश्चित्त स्थापित था । उसे वहन करते हुए जो भिक्षु पुनः पुनः मासिक परिहारस्थान का आसेवन करता है, उसे सानुग्रह आरोपणा के रूप में पन्द्रह दिन का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इस प्रकार आगे से आगे पाक्षिक आरोपणा को संयुक्त करने पर उसे किस प्रकार उत्कृष्ट षाण्मासिक आरोपणा प्राप्त होती है, प्रस्तुत आलापक में इसका सविस्तर निरूपण किया गया है। ४६५ १०. सूत्र ४५-५१ कोई भिक्षु द्वैमासिक प्रायश्चित्त वहन करते हुए एकमासिकी प्रतिसेवना करे तो उसे सानुग्रह पाक्षिकी आरोपणा प्राप्त होती है। उस दाई मासिक प्रायश्चित वहन के अंतराल में ट्रैमासिकी प्रतिसेवना करे तो उसे बीसरात्रिकी आरोपणा प्राप्त होती है। इस प्रकार प्रायश्चित्त-वहन का काल तीन मास पांच दिन हो जाता है। इसी क्रम से दोनों स्थानों की आरोपणा वृद्धि करते हुए उसे कितनी बार में षाण्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इस संयुक्त प्रस्थापिता आरोपणा की प्ररूपणा इस अंतिम आलापक का वाच्यार्थ है । २. वही, पृ. ३९० - एवं पुणो वीसतिरातिया छुब्धंतेहिं जाव ते परं छम्मासा अणुग्गहवणा चेव ।
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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