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उद्देशक २० : टिप्पण
प्रायश्चित्त का झोस (परिशाटन करके।'
३. पट्टवणाए पट्टविए-आलोचना-विधि एवं प्रायश्चित्तदान - विधि के अनुसार जिसने यथायोग्य प्रायश्चित्त को वहन करना प्रारंभ कर दिया है वह भिक्षु ।'
४. णिव्विसमाणो - प्रायश्चित्त वहन करता हुआ।
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६. सूत्र १९-२४
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आरोपणा के पांच प्रकार होते हैं
१. प्रस्थापिता पाण्मासिक, पाञ्चमासिक आदि प्रायश्चितों को वहन करते हुए जो अन्य उद्घात अथवा अनुद्घात प्रायश्चित्त प्राप्त हो, उसका उसी प्रारब्ध तप में आरोपण करना प्रस्थापिता आरोपणा है । प्रायश्चित्त वहन करते समय अन्य प्रायश्चित्त के दिनों को जोड़ कर दी जाने वाली आरोपणा प्रस्थापिता कहलाती है।
२. स्थापिता- जब तक भिक्षु आचार्य आदि के वैयावृत्य में व्यापृत है, तब तक वैयावृत्य एवं तपस्या दो योगों का एक साथ वहन नहीं किया जा सकता। अतः उतने काल तक उसका प्रायश्चित्त स्थापित कर दिया जाता है, वह स्थापिता आरोपणा है।' वहन किए जाने वाले प्रायश्वित्त से अन्य प्रायश्चित्त को किसी कारण से अलग कर रखी जाने वाली आरोपणा स्थापिता कहलाती है।
३. कृत्स्ना- शोषविरहित आरोपणा, जिसमें संपूर्ण प्रायश्चित्त वहन करना होता है, कृत्स्ना आरोपणा कहलाती है। इसका दूसरा नाम है निरनुग्रह आरोपणा
४. अकृत्स्ना जिस आरोपणा में शोस (न्यूनता) किया जाए, वह अकृत्स्ना आरोपणा होती है। इसका दूसरा नाम सानुग्रह आरोपणा है।
५. हाडहडा - तत्काल वहन कराई जाने वाली आरोपणा हाडहडा आरोपणा है।' इसमें अनुद्घात प्रायश्चित्त प्रदान किया जाता है।
प्रस्तुत सूत्रषट्क में प्रस्थापिता आरोपणा के छह निदर्शन प्रज्ञप्त हैं। कोई भिक्षु षाण्मासिक, पाञ्यमासिक यावत् एकमासिक प्रायश्चित्त वहन कर रहा है। इसी बीच उसने सकारण अथवा निष्कारण किसी मूलगुण अथवा उत्तरगुण में दोष लगा दिया, फलतः उसे द्वैमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ। उस प्रथम प्रतिसेवना में उसे सानुग्रह आरोपणा दी जाती है अर्थात् दो मास के स्थान पर बीस दिनरात का प्रायश्चित प्राप्त होता है। पुनः यदि वह उसी प्रकार के द्वैमासिक
१. निभा. भा. ४ चू. पृ. ३८५ - साहणिय त्ति एक्कतो काउं-अहवासाहणिय तिजं छम्मासातिरिक्तं तं परिसाडेऊणं झोसेत्ता छम्मासादित्यर्थः ।
२. वही पट्टवणाए त्ति प्रारम्भः
३. वही णिब्बिसमाणो तं पच्छितं वहतो कुव्यमाणेत्यर्थः ।
४. वही, गा. ६६४४-विया वहते
५.
वही - वेयावच्चट्ठिता ठवितगा उ ।
निसीहज्झयणं
प्रायश्चित्त स्थान का सेवन कर ले तो उसे दूसरी बार निरनुग्रह आरोपणा - सम्पूर्ण दो मास का प्रायश्चित्त दिया जाता है। इस प्रकार उसकी कुल आरोपणा दो मास बीस दिनरात की हो जाती है।"
कितने मास के प्रायश्चित्त की सानुग्रह आरोपणा कितने दिन की होती है अथवा कितने दिन की सानुग्रह आरोपणा से निरनुग्रह प्रायश्चित्त के कितने मास आते हैं, इनकी लक्षण गाथा इस प्रकार है
प्रायश्चित्तकरणत्वेन स्थापितः ।
दिवसा पंचहिं भतिता, दुरूवहीणा हवंति मासाओ मासा दुरूवसहिता, पंचगुणा ते भवे दिवसा ।। "
अर्थात् जितने दिन की सानुग्रह आरोपणा प्राप्त हो, उसमें पांच का भाग देकर उसमें से दो घटा दें तो निरनुग्रह प्रायश्चित्त के मास आ जाएंगे, जैसे
२० दिन / ५ = ४- २= २ मास
जितने मास की सानुग्रह आरोपणा ज्ञात करनी हो, उसमें दो मिला कर पांच से गुणा करें, जैसे-दो मास की सानुग्रह आरोपणा २+२=४x५ = २० दिन होगी ।
प्रायश्चित्त-वहन के प्रारम्भ, मध्य अथवा अंत जिस काल में प्रतिसेवना करे, वहीं उस प्रायश्चित्त का आरोपण किया जाता है। अतः सूत्रकार ने 'आदी मज्झेवसाणे पद का प्रयोग किया है।
स- अर्थ, सहेतु और सकारण ये तीनों शब्द एकार्थक हैं। इनका अर्थ है निष्पत्ति सहित जैसे तंतुओं से पट की निष्पत्ति होती है अतः तंतु पट के अर्थ, हेतु अथवा कारण हैं। विंशिका आरोपणा का हेतु है— द्वैमासिक आरोपणा। अतः स अर्थ, सहेतु और सकारण विंशिका आरोपणा का परिमाण है दो मास बीस दिन। "
७. सूत्र २५-२९
प्रस्तुत सूत्र पंचक में स्थापिता आरोपणा के छह निदर्शन प्रज्ञप्त हैं। वैयावृत्य लब्धिसंपन्न भिक्षु के वैयावृत्य काल में प्राप्त प्रायश्चित्त को स्थापित कर दिया जाता है, वैयावृत्य सम्पन्न होने (उस कारण की संपन्नता) पर उससे वह प्रायश्चित्त वहन करवाया जाता है। पूर्वोक्त सूत्रों में उसका दो मास बीस रात का प्रायश्वित्त स्थापित था। उसे वहन करते हुए उसने पुनः द्वैमासिक परिहारस्थान का सेवन किया, फलतः उसे बीस दिनरात की सानुग्रह आरोपणा प्राप्त होगी। स्थापिता आरोपणा के साथ सानुग्रह आरोपणा को मिलाने पर कुल
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९.
वही कसिणा झोसविरहिता ।
वही - जहि झोसो सा अकसिणा तू ।
वही, गा. ६६४५, ६६४६ ( सचूर्णि )
वही, भा. ४ चू.पू. ३८८
१०. वही, गा. ६४४२
१९. वही, पृ. ३८८ - तस्स जतो णिप्फत्तिः प्रभवः प्रसूतिः तं तस्स अत्थो त्ति वा उत्ति वा कारणं त्ति वा एगट्ठ ।