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________________ उद्देशक २० : सूत्र १८ ४५० निसीहज्झयणं १८. जे भिक्खू बहुसोवि चाउम्मासियं यो भिक्षुः बहुशः अपि चातुर्मासिकं वा १८. जो भिक्षु बहुत बार चातुर्मासिक, बहुत वा बहुसोवि साइरेगचाउम्मासियं वा बहुशः अपि सातिरेकचातुर्मासिकं वा बार सातिरेक चातुर्मासिक, बहुत बार बहुसोवि पंचमासियं वा बहुसोवि बहुशः अपि पाञ्चमासिकं वा बहुशः पाञ्चमासिक बहुत बार सातिरेक साइरेगपंचमासियं वा एएसिं परिहार- अपि सातिरेकपाञ्चमासिकं वा एतेषां पाञ्चमासिक-इन परिहारस्थानों में से ट्ठाणाणं अण्णयरं परिहारट्ठाणं परिहारस्थानानाम् अन्यतरं परिहारस्थानं किसी परिहारस्थान की प्रतिसेवना कर पडिसेवित्ता आलोएज्जा, पलिउंचियं प्रतिसेव्य आलोचयेत्, परिकुञ्चितम् आलोचना करे, उसे छलपूर्वक आलोचना आलोएमाणे ठवणिज्जं ठवइत्ता आलोचयतः स्थापनीयं स्थापयित्वा करने पर स्थापनीय (परिहार तप की समग्र करणिज्जं वेयावडियं। ठविए वि। करणीयं वैयावृत्यम्। स्थापिते अपि सामाचारी) की स्थापना (प्ररूपणा) करके पडिसेवित्ता, से विकसिणे तत्थेव प्रतिसेव्य, तदपि कृत्स्नं तत्रैव (उसका) वैयावृत्य करना चाहिए। आरुहेयव्वे सिया। । आरोपयितव्यं स्यात्। प्रायश्चित्त में स्थापित करने के बाद भी पुव्विं पडिसेवियं पुव्विं आलोइयं, पूर्व प्रतिसेवितं पूर्वम् आलोचितम्, पूर्व प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण प्रायश्चित्त पुव्विं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं। प्रतिसेवितं पश्चाद् आलोचितम् । पश्चात् उसी (पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त) में आरोपित पच्छा पडिसेवियं पुव्विं आलोइयं, प्रतिसेवितं पूर्वम् आलोचितम्, पश्चात् कर देना चाहिए। पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं।। प्रतिसेवितं पश्चाद् आलोचितम्। १. पूर्वानुपूर्वी से प्रतिसेवित दोष की अपलिउंचिए अपलिउंचियं, अपरिकुञ्चिते अपरिकुञ्चितम्, पूर्वानुपूर्वी से आलोचना। अपलिउंचिए पलिउंचियं । अपरिकुञ्चिते परिकुञ्चितम्। २. पूर्वानुपूर्वी से प्रतिसेवित दोष की पलिउंचिए अपलिउंचियं, पलिउंचिए परिकुञ्चिते अपरिकुञ्चितम्, परिकुञ्चिते पश्चानुपूर्वी से आलोचना। पलिउंचियं। परिकुञ्चितम्। ३. पश्चानुपूर्वी से प्रतिसेवित दोष की पलिउंचिए पलिउंचियं आलोए- परिकुञ्चिते परिकुञ्चितम् आलोचयतः ।। पूर्वानुपूर्वी से आलोचना। माणस्स सव्वमेयं सकयं साहणिय जे सर्वमेतत् स्वकृतं संहत्य यत् एतस्यां ४. पश्चानुपूर्वी से प्रतिसेवित दोष की एयाए पट्ठवणाए पट्ठविए प्रस्थापनायां प्रस्थापितः निर्विशमानः पश्चानुपूर्वी से आलोचना। णिव्विसमाणे पडिसेवेइ, से वि प्रतिसेवते, तदपि कृत्स्नं तत्रैव • निश्छल भाव से आलोचना का संकल्प कसिणे तत्थेव आरुहेयव्वे सिया॥ आरोपयितव्यं स्यात् । कर निश्छल भाव से आलोचना। • निश्छल भाव से आलोचना का संकल्प कर छलपूर्वक आलोचना। • छलपूर्वक आलोचना का संकल्प कर निश्छल भाव से आलोचना। • छलपूर्वक आलोचना का संकल्प कर छलपूर्वक आलोचना। छलयुक्त संकल्प की स्थिति में छलयुक्त आलोचना करने वाले के इस सारे स्वकृत को एकत्र कर उस सम्पूर्ण प्रायश्चित्त को भी उसी प्रायश्चित्त में आरोपित कर देना चाहिए, जो उसने इस प्रस्थापना में प्रस्थापित होने पर निर्विशमान अवस्था (प्रायश्चित्तवहनकाल) में प्रतिसेवन किया
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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