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आमुख
प्रस्तुत आगम के पूर्ववर्ती उन्नीस उद्देशकों की अपेक्षा से प्रस्तुत उद्देशक कुछ भिन्न एवं विशिष्ट है। पूर्ववर्ती सभी उद्देशकों के प्रत्येक सूत्र का अन्त 'सातिज्जति' क्रियापद से होता है अर्थात् जो भिक्षु सूत्रोक्त निषिद्ध पदों में से किसी का समाचरण करता है, करवाता है अथवा उसकी अनुमोदना करता है, उसके लिए प्रायश्चित्त का विधान किया गया है- 'आपन्न प्रायश्चित्त' का कथन किया गया है। प्रस्तुत उद्देशक में 'दान प्रायश्वित' का निरूपण है अर्थात् आचार्य उपाध्याय भिक्षु कृतकरण-अकृतकरण, गीतार्थ - अगीतार्थ आदि को विभिन्न दृष्टियों से किस प्रकार, किसको, कितना और कौनसा प्रायश्चित्त दिया जाए- इस प्रकार इसमें प्रायश्चित्त देने की प्रक्रिया का वर्णन है।
निशीथचूर्णिकार के अनुसार प्रस्तुत उद्देशक में तीन प्रकार के सूत्र हैं
१. आपत्ति सूत्र
३. आरोपणा सूत्र
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२. आलोचना सूत्र और
प्रत्येक प्रकार के सूत्रों में पुनः दस-दस प्रकार के सूत्र आते हैं
१. सकृत् प्रतिसेवना सूत्र
६. बहुशः सातिरेक सूत्र
२. बहुशः प्रतिसेवना सूत्र
७. सातिरेक संयोग सूत्र
३. सकृत् प्रतिसेवना संयोग सूत्र
८. बहुशः सातिरेक संयोग सूत्र
४. बहुशः प्रतिसेवना संयोग सूत्र
९. सकृत् सातिरेक संयोग सूत्र
५. सातिरेक सूत्र
१०. बहुशः सातिरेक संयोग सूत्र ।
आपत्ति सूत्रों में प्रथम चार प्रकार के सूत्रों का सूत्रतः कथन हुआ है जिनमें प्रथम और द्वितीय प्रकार के सूत्रों के पांच-पांच सूत्र सूत्रतः कथित हैं। तृतीय और चतुर्थ प्रकार के सूत्रों के २६ २६ सूत्र होते हैं, उनमें से अंतिम पंच-संयोगी सूत्र का सूत्रतः कथन है। शेष छह प्रकार के सूत्रों का अर्थतः कथन किया गया है।
आलोचना एवं आरोपणा सूत्रों में आठ-आठ सूत्रों के विभिन्न विकल्पों का अर्थतः कथन है। दोनों ही प्रकार के सूत्रों में केवल नवमें तथा दसवें प्रकार के एक-एक चतुष्कसंयोगी भंग वाले सूत्र का कथन सूत्रतः किया गया है। निशीथचूर्णिकार अनुसार इनके सांयोगिक भंगों से बनने वाले सूत्रों की संख्या करोड़ों तक पहुंच जाती है।'
प्रस्तुत आगम में सूत्रतः तपः प्रायश्चित्त का वर्णन है। तपः प्रायश्चित्त के दो प्रकार हैं- शुद्धतप और परिहारतप। साध्वियों को तथा अगीतार्थ, दुर्बलदेह तथा अन्तिम तीन संहनन वाले मुनियों को केवल शुद्धतप ही दिया जाता है। धृति बल से सम्पन्न, प्रथम तीन संहनन वाले गीतार्थ मुनियों को परिहारतप दिया जाता है।
प्रस्तुत उद्देशक के चार सूत्रों में परिहारतपः साधना की विधि, अनुपारिहारिक आदि की स्थापना, अनुशिष्टि, उपग्रह आदि का संक्षिप्त निरूपण हुआ है।
१. निभा. भा. ४ चू. पृ. २७१
२. विस्तार हेतु द्रष्टव्य-वही चू. पृ. ३६४-३६७
३. निसीह. २०/१५- १८