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________________ निसीहज्झयणं फुमवेज्ज वा रयावेज्ज वा, फुमावेंतं वा रयावेंतं वा सातिज्जति ।। दीह - रोम-पदं ५५. जा निग्गंथी निग्गंथस्स दीहाई उत्तरोट्ठ-रोमाई अण्णउत्थिएण वा गारत्थि एण वा कप्पावेज्ज वा संठवावेज्ज वा, कप्पावेंतं वा संठवावेंतं वा सातिज्जति ।। ५६. जा निग्गंथी निग्गंथस्स दीहाई अच्छि - पत्ताइं अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा कप्पावेज्ज वा संठवावेज्ज वा, कप्पावेंतं वा संठवावेंतं वा सातिज्जति ।। अच्छि - पत्त-पदं ५७. जा निग्गंथी निग्गंथस्स दीहाई अच्छि - पत्ताइं अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा कप्पावेज्ज वा संठवावेज्ज वा, कप्पावेंतं वा संठवावेंतं वा सातिज्जति ।। अच्छि - पदं ५८. जा निग्गंथी निग्गंथस्स अच्छीणि अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा आमज्जावेज्ज वा पमज्जावेज्ज वा, आमज्जावेंतं वा पमज्जावेंतं वा सातिज्जति ॥ ५९. जा निग्गंथी निग्गंथस्स अच्छीणि अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा संवाहावेज्ज वा पलिमद्दावेज्ज वा, संवाहावेंतं वा पलिमद्दावेंतं वा सातिज्जति ॥ ६०. जा निम्गंथी निग्गंथस्स अच्छीणि ३७९ 'फुमावेज्ज' (फूत्कारयेद्) वा रञ्जयेद् वा, 'फुमावेंतं' (फूत्कारयन्तं) वा रञ्जयन्तं वा स्वदते । दीर्घरोम-पदम् या निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थस्य दीर्घाणि उत्तरौष्ठरोमाणि अन्ययूथिकेन वा अगारस्थितेन वा कल्पयेद्वा संस्थापयेद् वा, कल्पयन्तं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते । या निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थस्य दीर्घाणि नासारोमाणि अन्यथ वा अगारस्थितेन वा कल्पयेद्वा संस्थापयेद् वा, कल्पयन्तं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते । अक्षिपत्र-पदम् या निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थस्य दीर्घाणि अक्षिपत्राणि अन्ययूथिन वा अगारस्थितेन वा कल्पयेद्वा संस्थापयेद् वा, कल्पयन्तं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते । अक्षि-पदम् या निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थस्य अक्षिणी अन्ययूथिकेन वा अगारस्थितेन वा आमार्जयेद् वा प्रमार्जयेद् वा, आमार्जयन्तं वा प्रमार्जयन्तं वा स्वदते । या निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थस्य अक्षिणी अन्ययूथिकेन वा अगारस्थितेन वा संवाहयेद् वा परिमर्दयेद् वा, संवाहयन्तं वा परिमर्दयन्तं वा स्वदते । या निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थस्य अक्षिणी उद्देशक १७ : सूत्र ५५-६० अथवा रंग लगवाती है और फूंक दिलवाने अथवा रंग लगवाने वाली का अनुमोदन करती है। दीर्घरोम पद ५५. जो निर्ग्रन्थी अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से निर्ग्रन्थ के उत्तरोष्ठ की दीर्घ रोमराजि को कटवाती है अथवा व्यवस्थित करवाती है और कटवाने अथवा व्यवस्थित करवाने वाली का अनुमोदन करती है। ५६. जो निर्ग्रन्थी अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से निर्ग्रन्थ की नाक की दीर्घ रोमराजि को कटवाती है अथवा व्यवस्थित करवाती है और कटवाने अथवा व्यवस्थित करवाने वाली का अनुमोदन करती है। अक्षिपत्र - पद ५७. जो निर्ग्रन्थी अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से निर्ग्रन्थ के दीर्घ अक्षिपत्रों को कटवाती है अथवा व्यवस्थित करवाती है और कटवाने अथवा व्यवस्थित करवाने वाली का अनुमोदन करती है। अक्षि-पद ५८. जो निर्ग्रन्थी अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से निर्ग्रन्थ की आंखों का आमार्जन करवाती है अथवा प्रमार्जन करवाती है और आमार्जन अथवा प्रमार्जन करवाने वाली का अनुमोदन करती है। ५९. जो निर्ग्रन्थी अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से निर्ग्रन्थ की आंखों का संबाधन करवाती है अथवा परिमर्दन करवाती है और संबाधन अथवा परिमर्दन करने वाली का अनुमोदन करती है। ६०. जो निर्ग्रन्था अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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