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________________ उद्देशक १७ : सूत्र ४९-५४ वा यावेंतं वा सातिज्जति ॥ उपदं ४९. जा निग्गंथी निग्गंथस्स उट्टे अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा आमज्जावेज्ज वा पमज्जावेज्ज वा, आमज्जावेंतं वा पमज्जावेंतं वा सातिज्जति ॥ ५०. जा निम्गंथी निग्गंथस्स उट्टे अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा संवाहावेज्ज वा पलिमद्दावेज्ज वा, संवाहावेंतं वा पलिमद्दावेंतं वा सातिज्जति ॥ ५१. जा निग्गंथी निग्गंथस्स उट्टे अण्णउत्थिण वा गारत्थिएण वा तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा अब्भंगावेज्ज वा मक्खावेज्ज वा अब्भंगावेंतं वा मक्खावेंतं वा सातिज्जति ॥ ५२. जा निग्गंथी निग्गंथस्स उट्टे अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा लोद्धेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोलावेज्ज वा उव्वट्टावेज्ज वा, उल्लोलावेंतं वा उव्वट्टावेंतं वा सातिज्जति ॥ ५३. जा निग्गंथी निम्गंथस्स उट्टे अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा सीओदग वियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलावेज्ज वा पधोवावेज्ज वा, उच्छोलावेंतं वा पधोवावेंतं वा सातिज्जति ।। ५४. जा निग्गंथी निग्गंथस्स उट्टे अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा ३७८ वा, 'फुमावेंतं' (फूत्कारयन्तं) वा जयन्तं वा स्वदते । ओष्ठ-पदम् या निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थस्य ओष्ठौ अन्ययूथिकेन वा अगारस्थितेन वा आमार्जयेद्वा प्रमार्जयेद् वा, आमार्जयन्तं वा प्रमार्जयन्तं वा स्वदते । या निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थस्य ओष्ठौ अन्ययूथिकेन वा अगारस्थितेन वा संवाहयेद् वा परिमर्दयेद् वा, संवाहयन्तं वा परिमर्दयन्तं वा स्वदते । निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थस्य ओष्ठौ अन्ययूथिकेन वा अगारस्थितेन वा तैलेन वा घृतेन वा वसया वा नवनीतेन वा अभ्यञ्जयेद् वा प्रक्षयेद् वा, अभ्यञ्जयन्तं वा प्रक्षयन्तं वा स्वदते । या निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थस्य ओष्ठौ अन्ययूथिकेन वा अगारस्थितेन वा लोध्रेण वा कल्केन वा चूर्णेन वा वर्णेन वा उल्लोलयेद् वा उद्वर्तयेद् वा, उल्लोलयन्तं वा उद्वतर्यन्तं वा स्वदते । या या निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थस्य ओष्ठौ अन्ययूथिकेन वा अगारस्थितेन वा शीतोदकविकृतेन वा उष्णोदकविकृतेन वा उत्क्षालयेद् वा प्रधावयेद् वा, उत्क्षालयन्तं वा प्रधावयन्तं वा स्वदते । या निर्ग्रन्थी निर्ग्रन्थस्य ओष्ठौ अन्ययूथिकेन वा अगारस्थितेन वा निसीहज्झयणं अथवा रंग लगवाने वाली का अनुमोदन करती है। ओष्ठ पद ४९. जो निर्ग्रन्थी अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से निर्ग्रन्थ के ओष्ठ का आमार्जन करवाती है अथवा प्रमार्जन करवाती है और आमार्जन अथवा प्रमार्जन करवाने वाली का अनुमोदन करती है। ५०. जो निर्ग्रन्थी अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से निर्ग्रन्थ के ओष्ठ का संबाधन करवाती है अथवा परिमर्दन करवाती है और संबाधन अथवा परिमर्दन करवाने वाली का अनुमोदन करती है। ५१. जो निर्ग्रन्थी अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से निर्ग्रन्थ के ओष्ठ का तैल, घृत, वसा अथवा मक्खन से अभ्यंगन करवाती है। अथवा प्रक्षण करवाती है और अभ्यंगन अथवा ग्रक्षण करवाने वाली का अनुमोदन करती है। ५२. जो निर्ग्रन्थी अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से निर्ग्रन्थ के ओष्ठ पर लोध, कल्क, चूर्ण अथवा वर्ण का लेप करवाती है अथवा उद्वर्तन करवाती है और लेप अथवा उद्वर्तन करवाने वाली का अनुमोदन करती है। ५३. जो निर्ग्रन्थी अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से निर्ग्रन्थ के ओष्ठ का प्रासुक शीतल जल अथवा प्रासुक उष्ण जल से उत्क्षालन करवाती है अथवा प्रधावन करवाती है और उत्क्षालन अथवा प्रधावन करवाने वाली का अनुमोदन करती है। ५४. जो निर्ग्रन्थी अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से निर्ग्रन्थ के ओष्ठ पर फूंक दिलवाती है।
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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