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________________ निसीहज्झयणं ३०५ उद्देशक १४:टिप्पण अंगविकल एवं असमर्थ भिक्षु यदि मांग ले तो उन्हें निर्दिष्ट व्यक्ति शब्दविमर्श हेतु द्रष्टव्य सूत्र ५/६५-६६ का टिप्पण। से पूर्व भी पात्र देना चाहिए। ५. सूत्र १०,११ जिस प्रकार रोगी को औषध दी जाए, निरोग को औषध से आयारचूला में निर्देश है कि भिक्षु अथवा भिक्षुणी वर्णवान, क्या प्रयोजन? उसी प्रकार जो हाथ, पैर आदि अवयवों से विकल पात्रों को विवर्ण एवं विवर्ण पात्रों को वर्णवान न बनाए।' होने के कारण स्वयं पात्र की गवेषणा आदि में अक्षम हैं, क्षुल्लक भिक्षु को कदाचित् कोई वर्णाढ्य पात्र प्राप्त हो, 'कोई मेरे भिक्षु अगीतार्थ होने के कारण तथा अत्यधिक वयःस्थविर गमनागमन पात्र का हरण न कर ले।'-इस बुद्धि से कोई उसके वर्ण को गर्म जल की शक्ति से रहित होने के कारण स्वयं पात्र नहीं ला सकते, उन्हें से धोकर, गोबर, मिट्टी, क्षार आदि का लेप कर उसे विवर्ण बनाए यह पात्र लाकर देना चाहिए, नीरोग एवं सशक्त को क्यों दिए जाएं?' उचित नहीं है। इसी प्रकार कोई पात्र स्तेनाहृत हो और उसे उसका अशक्त एवं विकलांग भिक्षु को पात्र न दिया जाए और वे पूर्वस्वामी पहचान न पाए-इस दृष्टि से उसके वर्ण का विपर्यास स्वयं पात्रान्वेषण हेतु भ्रमण करें तो संयमविराधना, लोकनिन्दा करना उचित नहीं। आदि दोषों की संभावना रहती है। भाष्यकार के अनुसार विकलांग विवर्ण पात्र को सुवर्ण बनाने के दो हेतु हैंके समान अटवी-निर्गत, बाल, वृद्ध, रोगी एवं जातिगँगित भी पात्र १. उसका पूर्वस्वामी उसे पहचान न सके। देने की प्राथमिकता में ग्राह्य हैं अर्थात् उन्हें भी पात्र देना चाहिए।' २. पात्र के प्रति राग भाव। अंगविकल में पादविकल, अक्षिविकल, नासिकाविकल, हाथविकल इन कारणों से प्रक्षण, धूपन आदि के द्वारा पात्र को वर्णाढ्य और कानविकल-इस क्रम से पात्र देना चाहिए। अंग-विकल में बनाना भी उचित नहीं। साधु और साध्वी दोनों वर्गों को पात्र देने हों तो प्राथमिकता साध्वियों ___ पात्र का निरर्थक परिकर्म करने से आत्मोपघात, जीवविराधना, को दी जाती है। संयमविराधना एवं सूत्रार्थ-पलिमंथु आदि अनेक दोष संभव हैं। ४. सूत्र ८,९ ६. सूत्र १२-१५ प्रस्तुत आगम के पांचवें उद्देशक में प्रमाणोपेत, मजबूत, भिक्षु के लिए निर्देश है कि पुराने पात्र को नया बनाने मात्र के अप्रातिहारिक और लक्षणयुक्त अखंड पात्र को तोड़-तोड़ कर लिए परिकर्म न करे। आयारचूला में पुराने को नया बनाने के तीन परिष्ठापन करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है।' प्रस्तुत सूत्रद्वयी में इन्हीं परिकर्मों का निषेध हैचारों विशेषणों से युक्त पात्र को धारण न करने तथा इन विशेषताओं • तेल, घृत आदि के द्वारा अभ्यंगन और प्रक्षण। से रहित पात्र को धारण करने का प्रायश्चित्त बतलाया गया है। • कल्क, लोध्र, वर्ण, चूर्ण आदि के द्वारा आघर्षण और अतिरिक्त प्रमाण और न्यून प्रमाण वाला पात्र क्रमशः आत्मविराधना प्रघर्षण। एवं एषणाघात का निमित्त बनता है। अस्थिर पात्र में भिक्षा लेने से • प्रासुक शीतल अथवा उष्ण जल से उत्क्षालन और प्रधावन । वह भग्न हो सकता है, फलतः एषणाघात, सूत्रार्थहानि आदि दोष प्रस्तुत सूत्र चतुष्टयी में दो परिकर्मों का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त हैसंभव हैं। प्रातिहारिक पात्र के टूट जाने, खो जाने आदि से कई दोषों • उत्क्षालन-प्रधावन के दो सूत्र और की संभावना रहती है तथा अलाक्षणिक (हंड संस्थान वाला, विषम •आघर्षण-प्रघर्षण के दो सूत्र। संस्थानवाला आदि) पात्र को धारण करने से चारित्रभेद, गणभेद निशीथसूत्र की कुछ प्रतियों में अभ्यंगन-म्रक्षण संबंधी दो आदि दोषों की संभावना रहती है। दूसरी ओर इन सभी विशेषताओं सूत्र भी उपलब्ध होते हैं ऐसा नवसुत्ताणि एवं भाष्य-चूर्णि सहित से युक्त पात्र को धारण न करने, तोड़कर परिष्ठापित करने से निशीथ सूत्र की प्रति में उल्लिखित पाद-टिप्पणों से स्पष्ट है।१२ गृहस्थों में अप्रीति, अप्रत्यय एवं लोकनिन्दा आदि दोष संभव हैं। निशीथभाष्यकार एवं चूर्णिकार के समक्ष अभ्यंगन-प्रक्षण १. निभा. गा. ४६१२ २. वही, गा. ४६२३ ३. वही, गा. ४५६७ ४. वही, गा. ४६२४ पादच्छि-नासकर-कन्नजुंगिते, जातिगँगिते चेव। वोच्चत्थे चउलहुगा, सरिसे पुव्वं तु समणीणं ।। ५. निसीह. ५१६५ ६. निभा. गा. ४६२९,४६३० सचूर्णि। ७. आचू. ६.५६ ८. निभा. गा.४६३५ ९. वही, गा. ४६३३, ४६३४ १०. वही, गा. ४६३६ ११. आचू. ६।३२-३४ १२. (क) नवसु. पृ. ७५६ (ख) निभा. भा. ३, चू.पृ. ४६४
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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