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________________ टिप्पण १.सूत्र १-४ भिक्षु सर्वथा अपरिग्रही होता है। आहार, वस्त्र, पात्र आदि सभी वस्तुएं उसे एषणा समिति पूर्वक भिक्षा के द्वारा ही ग्रहण करनी होती हैं। आवश्यक वस्तुओं को भी वह खरीद कर, उधार लेकर अथवा बदल कर नहीं ले सकता। आयारचूला में कहा गया है कि स्वयं या अपने साधर्मिक के लिए क्रीत, प्रामित्य, परिवर्तित, आच्छिन्न, अनिसृष्ट एवं अभिहत दोष से युक्त पात्र को भिक्षु पुरुषान्तरकृत, परिभुक्त, आसेवित आदि किसी भी अवस्था में ग्रहण न करे। किसी भी वस्तु को क्रय करने वाला क्रेता होता है और विक्रय करने वाला विक्रेता। क्रय और विक्रय दोनों वणिक्-वृत्तियां हैं। अतः भिक्षु भिक्षा से आहार, उपधि आदि को ग्रहण करे, क्रयविक्रय से नहीं। क्रीत के समान उधार लेकर दिए गए अथवा अपनी किसी वस्तु के द्वारा परिवर्तित कर दिए गए पात्र को ग्रहण करने पर भी कलह आदि अनेक दोष संभव हैं। बलात् किसी से छीन कर दिए गए पात्र को लेने से अहिंसा एवं अचौर्य-दोनों महाव्रतों में अतिचार लगता है। अनिसृष्ट दोष युक्त पात्र ग्रहण करने से अचौर्य तथा अभिहत दोषयुक्त पात्र ग्रहण करने से अहिंसा महाव्रत में अतिचार लगता है। ये छहों उद्गम दोष के अंतर्गत आते हैं। निशीथभाष्य एवं चूर्णि में इनके विषय में अच्छा विवरण उपलब्ध होता है।' शब्द विमर्श १. परियट्टिय-अपने पात्र आदि देकर दूसरे का पात्र आदि लेना।' २. अच्छेज्ज-अन्य व्यक्ति की वस्तु को साधु के लिए बलात् छीनकर देना। ३. अणिसटुं-जिसमें दूसरे की भागीदारी हो, उसकी अनुज्ञा १. आचू. ६/४-७ २. उत्तर. ३५/१४,१५ ३. निभा. गा. ४४७४-४५२३ ४. वही, भा. ३, चू.पृ. ४३१-अप्पणिज्जं देति परसंतियं गेण्हति त्ति परियट्टियं । ५. वही, पृ.४३३-अण्णस्स संतयं साहुअट्ठाए बला अच्छिंदिउं देज्जा। ६. बही-जं णिद्देज्जं दिण्णं तं णिसटुं, पडिपक्खे अणिसटुं । ७. वव. ८/१६ के बिना देना। २. सूत्र ५ ववहारो में अतिरिक्त पात्र के विषय में दो विधान उपलब्ध होते हैं निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी को अन्य निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी के लिए अतिरिक्त पात्र को धारण अथवा ग्रहण करना कल्पता है। जिस निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी के लिए अतिरिक्त पात्र धारण अथवा ग्रहण किया जाए, उसे पूछे बिना, आमंत्रित किए बिना अन्य किसी को देना नहीं कल्पता। व्याख्या साहित्य के अनुसार जिस भिक्षु को पात्र चाहिए, उसे गुरु से निवेदन करना होता था तथा जो पात्र लाने के लिए अन्य क्षेत्र में जाते, वे भी पात्र लाकर गुरु के पास रख देते, फिर गुरु ही उनका यथाविधि वितरण करते। गुरु से पूछे बिना कोई किसी के लिए पात्र नहीं लाता था और न कोई स्वयं किसी को लाने के लिए निवेदन करता। प्रस्तुत सूत्र में इसी व्यवस्था एवं विधान के भंग का प्रायश्चित्त बतलाया गया है। शब्द विमर्श उद्देश-सामान्य निर्देश, जैसे-गणि को देना है, वाचक को देना है आदि। ___ समुद्देश-नामनिर्देश पूर्वक अवधारण, जैसे-अमुक गणि, अमुक वाचक को देना है, आदि। ३. सूत्र ६,७ सामान्य विधि के अनुसार जो पात्र जिसके निर्देश पूर्वक लाया जाए, उसे वह अवश्य प्राप्त होना चाहिए। किन्तु जो अनिर्दिष्ट पात्र हो, उसे देने में लाने वाला स्वतंत्र होता है। विशेष विधि के अनुसार ८. निभा. भा. ३, चू.पृ. ४४४-जस्स पाएण कज्जं सो गुरुं विण्णवेति, जो य भण्णते तेण वि गुरू पुच्छियव्वो। अह दूरं गताणं को वि भणेज्ज-मे पातं आणेह, तत्थ उ साधारणं । गुरुवयणं ठवेंति गिहिस्सामो अम्हे पायं, तस्स उ गुरू जाणगा भविस्संतीत्यर्थः । ९. वही, पृ. ४३९-अविसेसिओ उद्देसो-गणिस्स दाहामि वायगस्स वा। १०. वही-विसेसओ समुद्देसो.......जहा अमुगगणिस्स दाहामो वायगस्स वा।
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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