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आमुख
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निसीहज्झयणं उस पात्र को लेकर एकान्त में जाए, वहां जाकर दग्धस्थंडिल, अस्थिराशि, किट्टराशि, तुषराशि, गोमयराशि अथवा अन्य उसी प्रकार के स्थंडिल की प्रतिलेखना कर, उसको प्रमार्जित कर यतनापूर्वक पात्र का आतापन-प्रतापन करे।' प्रस्तुत उद्देशक में केवल उन पूर्वोक्त निषिद्ध स्थानों पर पात्र के आतापन-प्रतापन के प्रायश्चित्त का निरूपण है।
प्राचीनकाल में पात्र-आनयन की सम्पूर्ण विधि निर्धारित थी। हर साधु पात्र लाने नहीं जाता था। जिनको पात्र की आवश्यकता होती, वे गुरु से निवेदन करते । पात्र-आनयन करने वाले भिक्षु दो प्रकार के होते-१. गुरु द्वारा नियुक्त उपकरणउत्पादन (प्राप्ति) की लब्धि से युक्त भिक्षु। २. उपकरण-उत्पादन विषयक सूत्रार्थ के ज्ञाता उत्साही मुनि, जो स्वयं यह अभिग्रह करते हैं कि हमें अमुक उपकरण उत्पादन करना (लाना) चाहिए।'
दोनों ही प्रकार के भिक्षु गुरु द्वारा निर्दिष्ट संख्या में पात्र ग्रहण करते, लाकर उसे गुरु के सम्मुख रख देते। यदि आवश्यक पात्रों को ग्रहण करने के बाद उन्हें कोई सुलक्षण पात्र मिल जाता तो वह किसी गणि, वाचक आदि को लक्ष्य करके अथवा सहज भाव से भी अतिरिक्त पात्र लेकर आ जाते । प्रस्तुत संदर्भ में भाष्य एवं चूर्णि में बताया गया है कि जिसके उद्देश, समुद्देश पूर्वक अतिरिक्त पात्र लाया जाता, उसकी खोज किस प्रकार की जाती तथा निर्दिष्ट गणि आदि से पूर्व भी अतिरिक्त पात्र को अंगविकल, जुंगित, स्थविर अथवा बाल साधु को किस क्रम से दिया जाता।
आयारचूला में विधान है-'जे णिग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे, से एगं पायं धारेज्जा, णो बीयं'। इस संदर्भ में भाष्यकार ने चालना प्रत्यवस्थान के द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि मात्रक भी स्थविरकल्पिक की
औधिक उपधि है और उसे ग्रहण न करने से अनेक दोषों की संभावना है। इस प्रकार संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्रस्तुत सम्पूर्ण प्रकरण पात्र-विषयक अनेक नई दृष्टियों को स्पष्ट करने वाला है।
१. आचू. ६/३८-४२
२. निभा. गा. ४५४६, चू.पृ. ४४३