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आमुख
प्रस्तुत उद्देशक का केन्द्रीय प्रतिपाद्य है-प्रतिग्रह (पात्र)। गच्छवासी (स्थविरकल्पी) भिक्षु की मुख्य औधिक उपधि है-वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादप्रोञ्छन । आगम के कई सूत्रों में इनके लिए समान विधि-निषेध प्राप्त होते हैं। आयारचूला में 'पिंडेसणा' के समान पाएसणा' पर भी सम्पूर्ण अध्ययन उपलब्ध है। यहां एक प्रश्न उपस्थित होता है कि आहार के विषय में आधाकर्मी, औद्देशिक आदि उद्गमदोषों तथा धात्रीपिण्ड, दूतीपिण्ड, निमित्तपिण्ड, क्रोधपिण्ड आदि उत्पादना-दोषों का विचार किया जाता है तो पात्र के विषय में उनका विचार क्यों नहीं? दूसरी ओर पात्र के विषय में प्रस्तुत उद्देशक में क्रीत, प्रामित्य, परिवर्त्य आदि दोषों का विचार किया गया है तो प्रस्तुत आगम में आहार के विषय में उन दोषों का प्रायश्चित्त कथन क्यों नहीं? आयारचूला में पिंडेसणा, वत्थेसणा, पाएसणा, ठाणं, सेज्जा आदि सबके विषय में एक ही समान समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्ज....आदि पाठ उपलब्ध होता है।
निसीहज्झयणं में सर्वप्रथम किणेति, पामिच्चेति, परियट्रेति....आदि पाठ इसी उद्देशक में आए हैं। अतः निशीथभाष्य एवं चूर्णि में आहार के सम्बन्ध में भी इन दोषों के विविध प्रकारों-आत्मभावक्रीत, परभावक्रीत, लौकिक प्रामित्य, लोकोत्तर प्रामित्य, लौकिक परिवर्त्य, लोकोत्तर परिवर्त्य तथा एतद्विषयक दोषों एवं अपवादों का वर्णन किया गया है। अतः चूर्णिकार ने प्रश्न उपस्थित किया
प्रश्नकर्ता-पात्राधिकार का प्रसंग है फिर क्रीतकृत आदि भक्त (आहार) के विषय में कथन का क्या प्रयोजन? पात्र के विषय में ही कहना चाहिए।
__ आचार्य-यद्यपि यह सम्पूर्ण अधिकार पात्र से संबद्ध है फिर भी पूर्वसिद्ध होने से पिण्ड के विषय में कहा जा रहा है। वैसे भी जो विधि क्रीतकृत आदि भक्त के विषय में ज्ञातव्य है, वही सारी विधि पात्र के विषय में ज्ञातव्य है। अतः पात्र के प्रसंग . में आहार के क्रीत, प्रामित्य आदि विषयक विचार प्रासंगिक हैं।२
प्रस्तुत उद्देशक के साथ आयारचूला के छठे अध्ययन की तुलना करने से ज्ञात होता है कि आयारचूला में जिन-जिन कार्यों का निषेध किया गया है, उनमें से जिनको गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त योग्य माना गया, उनका प्रस्तुत उद्देशक में कथन नहीं किया गया, जैसे-महामूल्य वाले, धातुघटित अथवा धातुघटित बन्धन वाले पात्र रखना, पात्र की प्रतिज्ञा से अर्धयोजन की मर्यादा से अधिक जाना तथा उतनी मर्यादा से अधिक दूरी से सप्रत्यपाय मार्ग से अभिहत दोषयुक्त पात्र ग्रहण करना आदि। शेष प्रायः सभी पात्र-विषयक निषेधों का प्रायश्चित्त लघु चातुर्मासिक है। अतः उनको इस उद्देशक में सूत्रनिबद्ध किया गया है। आयारचूला में बताया गया है कि कोई गृहस्थ यदि भिक्षु के लिए पात्र का अभ्यंगन, म्रक्षण, आघर्षण-प्रघर्षण तथा उत्क्षालन-प्रधावन करके दे तो वह उस पात्र को अप्रासुक अनेषणीय मानता हुआ ग्रहण न करे । प्रस्तुत उद्देशक में पुराने पात्र को नया बनाने अथवा दुर्गन्धमय पात्र को सुगन्धित करने के लिए लोध, चूर्ण आदि से आघर्षण-प्रघर्षण करने तथा गर्म अथवा ठण्डे जल से उत्क्षालन-प्रधावन करने वाले भिक्षु के लिए प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है।
आयारचूला में पात्र को अव्यवहित, सस्निग्ध, सरजस्क और सचित्त पृथिवी, शिला आदि तथा विविध प्रकार के दुर्निबद्ध, दुर्निक्षिप्त चलाचल, अधर स्थानों पर पात्र के आतापन-प्रतापन का निषेध करते हुए यह निर्देश दिया गया है कि वह
१. निभा. गा. ४४७४-४५२३ २. वही, गा. ४५२२ (सचूर्णि)
३. निसीह. ११/१-८ ४. आचू. ६/२२-२४