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________________ ००० उद्देशक १३ : टिप्पण ३. निमित्तपिण्ड-लाभ-अलाभ, सुख-दुःख और जन्म- मृत्यु-इस षड्वध निमित्त का कथन कर आहार प्राप्त करना । निमित्तपिण्ड है। ४. आजीवकपिंड-जाति, कुल, गण आदि का परिचय देकर आहार प्राप्त करना आजीवकपिण्ड है। निशीथभाष्य एवं चूर्णि में जाति, कुल, गण, कर्म एवं शिल्प-इस पंचविध आजीववृत्तिता का सूचा एवं असूचा आदि भेदों सहित विस्तृत निरूपण उपलब्ध होता है। ५. वनीपकपिङ-स्वयं को श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि आदि का भक्त बताकर अथवा उनकी प्रशंसा कर आहार की याचना करना वनीपकपिण्ड है। वनीपक पिण्ड से मिथ्यात्व का स्थिरीकरण, उद्गम दोष, शासन की अप्रभावना आदि दोषों की संभावना रहती है। भाष्यकार एवं चूर्णिकार ने वनीपकपिण्ड के विविध प्रकारों का विस्तृत वर्णन किया है। ६. चिकित्सापिण्ड-वैद्य की भांति गृहस्थ की चिकित्साव्याधि प्रतिकर्म कर आहार प्राप्त करना चिकित्सापिण्ड है। वैद्यक वृत्ति से पिण्डैषणा के विषय में भाष्यकार ने दुर्बल व्याघ्र की चिकित्सा का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है__एक बार एक वैद्य जंगल में गया। वहां एक बाघ पीड़ा से कराह रहा था। उसने अनुकम्पा कर बाघ को स्वस्थ कर दिया। स्वास्थ्य लाभ करने पर बाघ अनेक जीवों की हिंसा में प्रवृत्त हुआ। उसी प्रकार गृहस्थ की चिकित्सा करने से स्वास्थ्य-लाभ कर वह अधिक आरम्भ-समारम्भ करता है। अतः उसकी चिकित्सा हिंसा का हेतु है। ७. क्रोधपिण्ड-अपनी विद्या, तप अथवा प्रभाव के द्वारा 'इनका कोप मेरे लिए अच्छा नहीं यह अनुभूति करवाकर आहार प्राप्त करना क्रोधपिण्ड है। प्रस्तुत संदर्भ में भाष्यकार ने धर्मरुचि अनगार का दृष्टान्त दिया है। ___ एक गृहस्थ के घर मृत्युभोज था। धर्मरुचि नामक मुनि मासखमण का पारणा करने वहां पहुंचे पर भोज में लगे लोगों ने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया। मुनि ने बहुत देर प्रतीक्षा की, फिर यह १. निभा. भा., ३ चू.पृ. ४१०-तीतमणागतवट्टमाणत्थाणोपलद्धिकारणं णिमित्तं भण्णति, जो तं पर्युजिता असणादिमुप्पादेति सो णिमित्त पिण्डो भण्णति। २. वही, पृ. ४१२-जातिमातिभावं उवजीवति त्ति आजीवणपिंडो। ३. वही, गा. ४४११-४४१६ ४. वही, गा. ४४१९ ५. वही, गा. ४४२२ ६. वही, गा. ४४२०-४४३० वही, भा. ३, चू.पृ. ४१६-रोगावणयणं तिगिच्छा, तं जो करेति गिहस्स......। निसीहज्झयणं कहते हुए चला गया दूसरों से दिलाओगे! अन्यत्र भिक्षा कर पारणा किया। पुनः मासखमण के पारणे में वैसा ही घटित हुआ। उस दिन भी उस घर में एक व्यक्ति मर गया। तीसरे मासखमण के पारणे में तीसरा व्यक्ति मर गया और मुनि धर्मरुचि पुनः खाली पात्र लेकर 'दूसरों से दिलाओगे' कहते हुए लौटने लगे। तब एक स्थविर ने कहा-इस ऋषि को उपशान्त करो। कहीं एक-एक व्यक्ति के मरने से सारा कुल ही विनष्ट न हो जाए। लोगों ने उसे प्रचुर मात्रा में घेवर आदि देकर शान्त किया। यह भिक्षा उसके क्रोध से डर कर दी गई। अतः क्रोधपिण्ड है। विस्तार हेतु द्रष्टव्य निशीथभाष्य परि. २ कथा सं. ८८ ८.मानपिण्ड-दूसरों के प्रशंसात्मक शब्दों से उत्साहित होकर गर्वपूर्वक आहार की एषणा में प्रवृत्त होना मानपिण्ड है। पिण्डनियुक्ति के समान निशीथभाष्य में भी सेवइयों का रोचक दृष्टान्त देकर मानपिण्ड को समझाया गया है। एक गांव में सेवइयों का उत्सव था। वहां एक आचार्य बड़े शिष्य-समुदाय के साथ विराजमान थे। शिष्यों में चर्चा चली कि हमें कौन सेवइयां लाकर दे। एक क्षुल्लक ने अभिमानपूर्वक यह स्वीकार किया कि मैं आप सबके लिए घी गुड़ युक्त पर्याप्त सेवइयां लाऊंगा। एक घर में बहुत सी सेवइयां देखी, लेकिन उस गृहिणी ने उसे सेवइयां देने से इन्कार कर दिया। शिष्य ने गर्व से कहा-देखना, ये सेवइयां मैं अवश्य लूंगा। उसने उस घर के मालिक इन्द्रदत्त को सेवइयां देने के लिए वचनबद्ध कर लिया। घर जाकर इन्द्रदत्त ने पत्नी को ऊपर से गुड़ उतारने के लिए कहा। पत्नी के ऊपर से गुड़ उतारने पर उसने नसैनी हटा ली और क्षुल्लक को गुड़ और सेवइयां देने लगा। क्षुल्लक ने संकेत के द्वारा गृहिणी को जता दिया कि मैंने सेवइयां लेकर जो कहा, सो कर दिखाया। यह मानपिण्ड है। (कथा के विस्तार हेतु द्रष्टव्य-निशीथभाष्य परि. २ कथा. सं. ८९) ९. मायापिण्ड-मायापूर्वक आहार प्राप्त करना मायापिण्ड है। मायापिण्ड के विषय में निशीथभाष्य एवं चूर्णि में कोई व्याख्या उपलब्ध नहीं होती। पिण्डनियुक्ति में इस विषय में आषाढ़भूति की कथा का संकेत मिलता है।१२ ८. (क) वही, पृ. ४१८-कोहप्रसादात्पिंडं लभते स कोपपिण्डः। (ख) वही, गा. ४४४०, ४४४१ ९. वही, गा. ४४४२ १०. (क) वही, गा. ४४४५ (ख) वही, भा. ३ चू. पृ. ४१९-अभिमाणतो पिंडग्गहणं करेति त्ति माणपिंडो। ११. वही, गा. ४४४६-४४५३ १२. पिं. नि. २१९/९ असाडभूति त्ति खुड्डुओ तस्स।
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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