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निसीहज्झयणं
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उद्देशक १३ : टिप्पण मामाक-जो भिक्षु आहार, उपकरण, शरीर, विचारभूमि, शब्द विमर्श स्वाध्यायभूमि, वसति, कुल, ग्राम आदि में ममत्व भाव से प्रतिबद्ध १.धात्रीपिण्ड-धाय की भांति बालक को खिलाकर, मार्जन होता है तथा उपकरण आदि के विषय में अन्य को प्रतिषेध करता (स्नान आदि) करवाकर, मंडन आदि करके अथवा एक धाय के है-अमुक उपकरण मेरा है, इसे कोई न ले।' वह मामाक कहलाता स्थान पर दूसरी धाय की व्यवस्था आदि के माध्यम से आहार प्राप्त
करना धात्रीपिण्ड है। संप्रसारक-जो गृहस्थ के कार्यों में अल्प या अधिक पर्यालोचन संगम नामक स्थविर जंघाबल के क्षीण हो जाने से एक ही करता है, उन्हें तद्विषयक मंत्रणा देता है, वह संप्रसारक कहलाता
क्षेत्र को नौ भागों में विभक्त कर नवकल्पी विहार करते थे। दत्त है। गृहस्थ को गृह-प्रवेश, यात्रा, विवाह, क्रय-विक्रय आदि नामक मुनि एक बार उनके पास आया। संगम स्थविर ने उसकी कार्यों का मुहुर्त बताना, यह खरीदो, यह मत खरीदो-इत्यादि सामुदानिक भिक्षा की कठिनाई समझी। वे उसे एक श्रेष्ठी के घर ले मंत्रणा देना-संप्रसारकत्व है।
गए। वहां रोते बच्चे को संगम स्थविर ने कहा-'बच्चे! चुप हो १४. सूत्र ६१-७५
जाओ।' गुरु के प्रभाव से पूतना निकल गई और बालक स्वस्थ हो भिक्षा के तीन प्रकार हैं
गया। पुत्र की स्वस्थता से प्रसन्न होकर सेठानी ने दत्त को प्रचुर मात्रा १. दीन वृत्ति-अनाथ और अपंग व्यक्ति मांग कर खाते
में लड्डु बहरा दिए । संगम स्थविर ने अन्यत्र अज्ञातउञ्छ ग्रहण किया। हैं यह दीन वृत्ति भिक्षा है। इसका हेतु है-असमर्थता।
शाम को उन्होंने दत्त से कहा-तुमने धात्रीपिण्ड का भोग किया है। २. पौरुषघ्नी–श्रम करने में समर्थ व्यक्ति मांग कर खाते
दत्त ने स्वीकार नहीं किया। क्षेत्र-देवता ने रुष्ट होकर दुर्दिन की
विकुर्वणा की। दत्त ठंड से ठिठुरने लगा। गुरु ने कहा-अन्दर आ हैं यह पौरुषघ्नी भिक्षा है। इसका हेतु है-अकर्मण्यता। ३. सर्वसंपत्करी भिक्षा-संयमी माधुकरी वृत्ति से सहज
जाओ। उसे द्वार दिखाई नहीं दिया। गुरु ने अपनी अंगुली के श्लेष्म
लगाया। अंगुली प्रदीप्त प्रदीप सी प्रकाशित हो गई। गुरु के अतिशय सिद्ध आहार लेते हैं यह सर्वसंपत्करी भिक्षा है। इसका हेतु है
को देख कर उसे उनके विशुद्ध चारित्र पर विश्वास हुआ। उसने अहिंसा।
अपनी भूल के लिए क्षमायाचना की। इस प्रकार बच्चे को चुप करके भिक्षु को सदा अदीनवृत्ति से एषणा करते हुए आहार, उपधि
भिक्षा लेना धात्रीपिण्ड है। आदि का उत्पादन करना होता है। जो भिक्षु धात्रीकर्म करके बच्चे
विस्तार हेतु द्रष्टव्य-निशीथभाष्य परि. २ कथा सं. ८६। को खिलाकर, उसे मंडित कर अथवा धाय के गुण-दोष का कथन
निशीथभाष्य एवं चूर्णि में धात्रीपिण्ड के विविध प्रकारों, दोषों कर आहार प्राप्त करता है, संदेशवाहक के समान स्वजन-संबंधियों
आदि का सविस्तर विवरण किया गया है। के समाचारों का आदान-प्रदान कर आहार प्राप्त करता है, इसी
२. दूतीपिण्ड-दौत्य कर्म के द्वारा संदेश, समाचार आदि प्रकार अतीत आदि के निमित्त का कथन कर, कुल, जाति आदि का
का संप्रेषण कर आहार प्राप्त करना दूतीपिण्ड है।' परिचय देकर, दान-फल का कथन कर, चिकित्सा कार्य का सम्पादन
निशीथभाष्य एवं चूर्णि में स्वग्राम-परग्राम आदि भेदों का कर अथवा क्रोध, मान, माया और लोभ पूर्वक आहार आदि प्राप्त
विस्तार से निरूपण करते हुए निम्नांकित उदाहरण दिया हैकरता है, विद्या, मंत्र, चूर्ण एवं योग का प्रयोग कर आहार प्राप्त दो गांवों में वैर था। एक गांव में साधु प्रवासित थे। एक मुनि करता है, वह सर्वसंपत्करी भिक्षा नहीं है। इनका हेतु अहिंसा एवं
प्रतिदिन दूसरे गांव गोचरी जाता था। एक दिन शय्यातरी ने कहा मेरी संयमी जीवन भी नहीं है। वस्तुतः ये सारे उत्पादना के दोष हैं। पुत्री को कह देना हमारे गांव के लोग तुम्हारे गांव पर चढ़ाई करने प्रस्तुत आलापक में पूर्वसंस्तव, पश्चात् संस्तव तथा मूलकर्म का वाले हैं, तैयार हो जाए। पुत्री, जो दूसरे गांव में ब्याही हुई थी, उसने प्रायश्चित्त नहीं बताया गया है, उत्पादना के शेष दोषों के सेवन का अपने गांव में आक्रमण की बात प्रचारित कर दी। दोनों गांवों में लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है।
जमकर युद्ध हुआ। उस युद्ध में शय्यातरी का पुत्र, जामाता एवं पति ___निशीथभाष्य एवं चूर्णि में तथा पिण्डनियुक्ति में इनका उदाहरण तीनों मारे गए। यदि मुनि ने आक्रमण की सूचना न दी होती तो सहित विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है।
इतनी जनहानि न हुई होती। १. निभा. गा. ४३५९,४३६०
६. वही, गा. ४३७५-४३९८ २. वही, गा. ४३६१ सचूर्णि।
७. वही, भा. ३, चू. पृ. ४०९-गिहिसंदेसगं णेति आणेति वा जं ३. वही, गा. ४३६२ सचूर्णि।
तण्णिमित्तं पिंडं लभति सो दूतीपिंडो। ४. दसवे. अ. १ का आमुख (पृ. १७७)
८. वही, गा. ४३९७-४४०२ निभा. गा. ४३७७,४३८०