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निसीहज्झयणं
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उद्देशक १० : टिप्पण आदि से बचाने के लिए मार्ग में आगे-आगे चलना, ग्लान की विषयों से सम्बद्ध निमित्त हिंसा का हेतु बन सकता है अतः मुनि वैयावृत्य में संलग्न होने के कारण गुरु के बुलाने पर भी न आना, गृहस्थ को इनसे सम्बन्धित फलाफल न बताए। उत्तरज्झयणाणि में अवसन आचार्य को उद्यतविहारी बनाने के प्रयोजन से परिषद् के निमित्त का कथन करने वाले भिक्षु को पापश्रमण कहा गया है। वह मध्य उनकी बात काटना आदि।
यथार्थतः श्रमण नहीं होता।
गृहस्थ अथवा अन्यतीर्थिक को लाभ, अलाभ आदि से उन्मिश्र एषणा का सातवां दोष है। साधु को देने योग्य प्रासुक संबद्ध फलाफल बताने वाला भिक्षु उनकी सावध प्रवृत्तियों में निमित्त आहार में यदि अनन्तकाय वनस्पति मिली हुई हो तो वह साधु के बनता है। यदि निमित्त असत्य निकल जाए तो उसके द्वितीय महाव्रत लिए अग्राह्य होती है। उससे अनन्तकायिक वनस्पति जीवों की ___ में दोष लगता है तथा यशोहानि होती है। निमित्त कथन से होने वाले विराधना होती है। अनन्तकाय के मिश्रण से स्वाद में वृद्धि होने के अनर्थ को निशीथभाष्य में एक सुन्दर कथा के द्वारा समझाया गया कारण आसक्ति, अंगारदोष, प्रमाणातिरिक्त खाना, विसूचिका आदि है। भी संभव हैं। अतः अनन्तकाय-संयुक्त आहार करने वाले भिक्षु को एक बार एक निमित्तज्ञ से एक ग्राम प्रमुख की पत्नी ने पूछा-मेरा गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
पति परदेश से कब लौटेगा। उसने कहा-अमुक दिन अमुक वेला में ६. सूत्र ६
आ जाएगा। उस महिला ने अपने सारे पारिवारिक जनों को यह बात मन से साधु के निमित्त आरम्भ-समारम्भ का संकल्प कर बता दी। आहार आदि निष्पन्न करना आधाकर्म है। निशीथभाष्य एवं सारे पारिवारिकजनों को अगवानी में आया देख ग्रामप्रमुख बृहत्कल्पभाष्य में आधाकर्म पद के अनेक एकार्थक नामों की निक्षेप चकित रह गया। उसने कहा-मैंने कोई सूचना नहीं भेजी, फिर आप पद्धति से व्याख्या की गई है
लोगों को कैसे ज्ञात हुआ। पत्नी ने सारी बात कह दी, फिर भी उसे • जिस आहार आदि को ग्रहण करने से आत्मा पर कर्म । विश्वास नहीं हुआ। उसने निमित्तज्ञ की परीक्षा के लिए उसे बुला अथवा कमों में आत्मा का आधान होता है, वह आधाकर्म है। कर पूछा-मेरी घोड़ी गर्भवती है, इसके क्या होगा? निमित्तज्ञ ने
.जिस आहार आदि को ग्रहण करने से आत्मा अधोगमन बताया-पंचपुण्ड्र (पांच स्थानों पर सफेद चिह्न वाला) अश्व। उसने करती है-विशुद्ध संयम-स्थानों से नीचे-नीचे अविशुद्ध संयम-स्थानों तत्काल उसका पेट चीर दिया। निमित्त सत्य निकला। ग्रामस्वामी में गमन करती है, वह अधःकर्म-आधाकर्म होता है।
बोला-यदि तुम्हारा ज्ञान अयथार्थ होता तो तुम्हारी भी यही गति .जिस आहार को ग्रहण करने से भाव आत्मा–ज्ञान, दर्शन,
होती। चारित्र का हनन होता है, वह आधाकर्म है।
___ भाष्यकार कहते हैं ऐसे अवितथ नैमित्तिक कितने होते हैं? आधाकर्म के तीन प्रकार हैं-१. आहार २. उपधि (वस्त्र, सार यह है कि भिक्षु को निमित्त कथन नहीं करना चाहिए ताकि इस पात्र) तथा ३. वसति ।' आयारचूला में भी भिक्ष के लिए प्रकार के दोषों की संभावना न रहे। आधाकर्मयुक्त आहार को अनेषणीय बताते हुए उसका निषेध किया अतः प्रस्तुत सूत्रद्वयी में वर्तमान एवं भविष्य सम्बन्धी निमित्त गया है। आधाकर्मभोजी श्रमण आयुष्य को छोड़कर शेष सात कर्मों का कथन करने वाले भिक्षु को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य की शिथिल बंधनबद्ध प्रकृतियों का गाढ़ बंधनबद्ध करता है। माना गया है। ७. सूत्र ७,८
८. सूत्र ९,१० निमित्त का अर्थ है-अतीत, वर्तमान और भविष्य सम्बन्धी शैक्ष का अर्थ है-शिक्षा के योग्य ।" उसके दो प्रकार होते शुभाशुभ फल बताने वाली विद्या। इसके मुख्यतः छह प्रकार हैं-प्रव्रजित और प्रव्राजनीय (अप्रव्रजित)।२ कोई शैक्ष किसी भिक्षु (विषय) हैं-लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवन और मरण । इन छह के साथ अथवा अकेला किसी आचार्य के पास दीक्षित होने जा रहा १. विस्तार हेतु द्रष्टव्य-निभा. गा. २६४२-२६४८
६. विस्तार हेतु द्रष्टव्य-भग. (भाष्य) १/४३६,४३७ व उसका २. विस्तार हेतु द्रष्टव्य-वही, गा. २६५९,२६६०
भाष्य। ३. (क) वही, गा. २६६६
७. दसवे. ८/५० का टिप्पण (ख) बृभा. गा.
८. उत्तर. १७/१८ ४. निभा. गा. २६६३-२६६५
९. वही ८/१३ ५. आच.१/१२३-परो.आहाकम्मियं असणं वा पाणं वा.....अप्फासयं १०. निभा. गा. २६९४-२६९६ अणेसणिज्जं त्ति मण्णमाणे लाभे संते णो पडिगाहेज्जा।
११. निभा. भा. ३ चू.पृ. २१-सेहणिज्जो सेहो। १२. वही-दुविहो-पव्वतिते अपव्वतिते वा।