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(19) नाम : अन्वर्थता विमर्श
प्रस्तुत आगम का नाम निसीहज्झयणं है। निसीह शब्द के संस्कृत रूप दो बनते हैं-निशीथ और निषीध । निशीथ का अर्थ अप्रकाश
अध्येता के तीन प्रकार होते हैं-अपरिणामक, परिणामक और अतिपरिणामक। अपरिणामक की बुद्धि परिपक्व नहीं होती और अतिपरिणामक की बुद्धि कुतर्कपूर्ण होती है। अतः ये दोनों निसीहज्झयणं पढ़ने के अधिकारी नहीं होते। निशीथ प्रवचन रहस्य है। निशीथभाष्य के अनुसार जो भिक्षु सूत्रोक्त अपवाद पदों के रहस्य को आजीवन धारण नहीं कर पाता, उन्हें अगीतार्थ भिक्षुओं को बताता रहता है, एक अपवाद की निश्रा में अन्य अपवादों का सेवन करता रहता है, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि से सम्बन्धित योगों में प्रवृत्त नहीं होता, ऐसे भिन्नरहस्य, निश्राकर एवं मुक्तयोगी को निशीथ की वाचना नहीं देनी चाहिए। इसके विपरीत जीवनभर रहस्य को पचाने वाला, निष्पक्ष (राग-द्वेष रहित), पांच समितियों से समित एवं अशठभाव से चारित्र पालन करने वाला भिक्षु निशीथ की वाचना के योग्य होता
दिगम्बर ग्रन्थों-षट्खण्डागम एवं गोम्मटसार जीवकाण्ड में णिसीह के स्थान में 'णिसीहिया' शब्द का प्रयोग मिलता है। गोम्मटसार की टीका में इसका संस्कृत रूप 'निषिद्धिका' किया गया है। हरिवंशपुराण में निशीथ के लिए निषद्यक शब्द का प्रयोग मिलता है। इस प्रकार निषिद्धिका अथवा निषधक नामक ग्रन्थ-प्रायश्चित्त शास्त्र अथवा प्रमाददोष का निषेध करने वाला शास्त्र है। वेबर ने भी निसीह के निषेध अर्थ को संगत माना है। 'निषेध', निषीध अथवा निषिद्धिका के अर्थ की दृष्टि से विचार किया जाए तो 'निशीथ' रूप अधिक संगत प्रतीत होता है, क्योंकि प्रस्तुत आगम विधि-निषेध का नहीं, प्रायश्चित्त का प्रतिपादक है तथा इस विषय में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-दोनों परम्पराएं एकमत हैं।'
प्रस्तुत आगम अपरिणामक एवं अतिपरिणामक, आदिअदृष्टधर्मा तथा अव्यक्त (अव्यंजनजात) के लिए अपाठ्य है, जनाकुल प्रदेश में इसकी वाचना निषिद्ध है। अतः निषिधिका अर्थात् स्वाध्यायभूमि में ही इसे पढ़ना चाहिए, अन्यत्र नहीं इस दृष्टि से इसके निषिद्धिका-इस निषेधपरक अर्थ को भी संगत माना जा सकता है।
निसीहज्झयणं प्रायश्चित्त सूत्र है, उत्तम श्रुत है। इसका अध्ययन करते समय निषद्या की व्यवस्था की जाती थी। आलोचना के समय आलोचक आचार्य के लिए निषद्या की व्यवस्था करता था। इस दृष्टि से इसका निषद्यक नाम भी संगत हो सकता है।
निशीथभाष्य के अनुसार आयारो तथा आयारचूला में उपदिष्ट क्रिया का अतिक्रमण करने पर जो प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, वह निसीहज्झयणं में प्रज्ञप्त है।१२ चूर्णिकार ने भी आयारचूला तथा निशीथ का सम्बन्ध प्रतिषेध सूत्र और प्रायश्चित्त सूत्र के रूप में प्रतिपादित किया है।३
निशीथ चूर्णिकार के अनुसार प्रस्तुत आगम रहस्यमय है, हर किसी के लिए स्पष्ट नहीं है, अनधिकारी के लिए प्रकाश्य नहीं है, रात्रि या एकान्त में पठनीय है-इन दृष्टियों से 'णिसीह' का 'निशीथ' अर्थ अधिक संगत लगता है।
निशीथभाष्य एवं चूर्णि में 'णिसीह' शब्द की निक्षेप पद्धति से व्याख्या करते हुए बताया गया है कि जिससे अष्टविध कर्ममल का
१. निभा. गा. ६९-जंतु होइ अप्पगासं तं तु णिसीहं ति लोगसंसिद्धं ।
वही, भा. १ पृ. १६५-पुरिसो तिविहो-परिणामगो अपरिणामगो अतिपरिणामगो, तो एत्थ अपरिणामग-अतिपरिणामगाणं
पडिसेहो। ३. वही, भा. ४ पृ. २६१ ४. वही, गा. ६७०२,६७०३ ५. (क) षट्खं. १/९६
(ख) गोजी. ३६७ ६. वही, ३६७ की वृत्ति-निषेधनं प्रमाददोषनिराकरणं निषिद्धिः
संज्ञायां 'क'प्रत्यये निषिद्धिका तच्च प्रमाददोषविशुद्ध्यर्थ
बहुप्रकारं प्रायश्चित्तं वर्णयति । ७. ह. पु. १०/१३८-निषद्यकाख्यमाख्याति प्रायश्चित्तविधि परम्। ८. इण्डियन एण्टीक्वेरी २१, पृ. ९७ (निभा. १ भू. पृ. ९) ९. (क) निभा. गा. २
(ख) षट्. खं. १, पृ. ९८ १०. निभा. गा. ६६७३ ११. वही, गा. ६३८९ १२. वही, गा. ७१ १३. वही, भा. १ चू. पृ. ३-तत्र प्रतिषेधः चतुर्थचूडात्मके आचारे यत्
प्रतिषिद्धं तं सेवंतस्स पच्छित्तं भवतीत्ति काउं।