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निसीहज्झयणं
उद्देशक ६ : सूत्र ७०-७४
संवाहेंतं वा पलिमहेंतं सातिज्जति॥
वा
अथवा परिमर्दन करने वाले का अनुमोदन करता है।
७०. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुण- यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया वडियाए अप्पणो अच्छीणि तेल्लेण __ आत्मनः अक्षिणी तैलेन वा घृतेन वा वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वसया वा नवनीतेन वा अभ्यज्याद् वा वा अब्भंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा, म्रक्षेद् वा, अभ्यञ्जन्तं वा म्रक्षन्तं वा अब्भंगेंतं वा मक्खेंतं वा स्वदते । सातिज्जति॥
७०. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर
अब्रह्म-सेवन के संकल्प से अपनी आंखों का तैल, घृत, वसा अथवा मक्खन से अभ्यंगन करता है अथवा म्रक्षण करता है और अभ्यंगन अथवा म्रक्षण करने वाले का अनुमोदन करता है।
७१. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहण- यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया
वडियाए अप्पणो अच्छीणि लोद्धेण आत्मनः अक्षिणी लोभ्रेण वा कल्केन वा वा कक्केण वा चुण्णेण वा वण्णेण __ चूर्णेन वा वर्णेन वा उल्लोलयेद्वा उद्वर्तेत वा उल्लोलेज्ज वा उव्वदे॒ज्ज वा, वा, उल्लोलयन्तं वा उद्वर्तमानं वा उल्लोलेंतं वा उव्वटेंतं वा स्वदते । सातिज्जति॥
७१. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर
अब्रह्म-सेवन के संकल्प से अपनी आंखों पर लोध, कल्क, चूर्ण अथवा वर्ण का लेप करता है अथवा उद्वर्तन करता है और लेप अथवा उद्वर्तन करने वाले का अनुमोदन करता है।
७२. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुण- यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया
वडियाए अप्पणो अच्छीणि आत्मनः अक्षिणी शीतोदकविकृतेन वा सीओदग-वियडेण वा उसिणोदग- उष्णोदकविकृतेन वा उत्क्षालयेद् वा वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा प्रधावेद् वा, उत्क्षालयन्तं वा प्रधावन्तं पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा स्वदते। वा सातिज्जति॥
७२. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर
अब्रह्म-सेवन के संकल्प से अपनी आंखों का प्रासुक शीतल जल अथवा प्रासुक उष्ण जल से उत्क्षालन करता है अथवा प्रधावन करता है और उत्क्षालन अथवा प्रधावन करने वाले का अनुमोदन करता है।
७३. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुण- वडियाए अप्पणो अच्छीणि फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुमेंतं वा रएंतं वा सातिज्जति॥
यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया आत्मनः अक्षिणी 'फुमेज्ज' (फूत्कुर्याद्) वा रजेद् वा, 'फुमेंतं' (फूत्कुर्वन्तं) वा रजन्तं वा स्वदते।
७३. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर
अब्रह्म-सेवन के संकल्प से अपनी आंखों पर फूंक देता है अथवा रंग लगाता है और फूंक देने अथवा रंग लगाने वाले का अनुमोदन करता है।
दीह-रोम-पदं
७४. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुण
वडियाए अप्पणो दीहाई भमुगरोमाइं कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति॥
दीर्घरोम-पदम् यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया आत्मनः दीर्घाणि धूरोमाणि कल्पेत वा संस्थापयेद्वा, कल्पमानं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते।
दीर्घरोम-पद ७४. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर
अब्रह्म-सेवन के संकल्प से अपनी भौहों की दीर्घ रोमराजि को काटता है अथवा व्यवस्थित करता है और काटने अथवा व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता