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निसीहज्झयणं
६४. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडयाए अप्पणो उट्टे फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुमेंतं वा रतं वा सातिज्जति ॥
दीह - रोम-पदं
६५. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो दीहाई उत्तरोट्ठरोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ॥
६६. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो दीहाई णासारोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ।।
अच्छि - पत्त-पदं
६७. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो दीहाई अच्छि - पत्ताई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ।।
अच्छि - पदं
६८. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो अच्छीणि आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति ॥
६९. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो अच्छीणि संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा,
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यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया आत्मनः ओष्ठौ 'फुमेज्ज' (फूत्कुर्याद्) वा रजेद् वा, 'फुमेंतं' (फूत्कुर्वन्तं) वा रजन्तं वा स्वदते ।
दीर्घरोम-पदम्
यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया आत्मनः दीर्घाणि उत्तरौष्ठरोमाणि कल्पेत वा संस्थापयेद् वा, कल्पमानं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते ।
यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया आत्मनः दीर्घाणि नासारोमाणि कल्पेत वा संस्थापयेद् वा, कल्पमानं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते ।
अक्षिपत्र-पदम्
यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया दीर्घाणि अक्षिपत्राणि कल्पेत वा संस्थापयेद् वा, कल्पमानं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते ।
अक्षि-पदम्
यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया आत्मनः अक्षिणी आमृज्याद् वा प्रमृज्याद् वा, आमार्जन्तं वा प्रमार्जन्तं वा स्वदते ।
यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया आत्मनः अक्षिणी संवाहयेद् वा परिमर्दयेद् वा, संवाहयन्तं वा परिमर्दयन्तं वा स्वदते ।
उद्देशक ६ : सूत्र ६४-६९
६४. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर
अब्रह्म सेवन के संकल्प से अपने ओष्ठ पर फूंक देता है अथवा रंग लगाता है और फूंक देने अथवा रंग लगाने वाले का अनुमोदन करता है ।
दीर्घरोम पद
६५. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म सेवन के संकल्प से अपने उत्तरोष्ठ की दीर्घ रोमराजि को काटता है अथवा व्यवस्थित करता है और काटने अथवा व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता है।
६६. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म सेवन के संकल्प से अपनी नाक की दीर्घ रोमराजि को काटता है अथवा व्यवस्थित करता है और काटने अथवा व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता है ।
अक्षिपत्र - पद
६७. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म सेवन का संकल्प से अपने दीर्घ अक्षिपत्रों को काटता है अथवा व्यवस्थित करता है और काटने अथवा व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता है।
अक्षि-पद
६८. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म सेवन के संकल्प से अपनी आंखों का आमार्जन करता है अथवा प्रमार्जन करता है और आमार्जन अथवा प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करता है ।
६९. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म- सेवन के संकल्प से संबाधन करता है अथवा परिमर्दन करता है और संबाधन