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(14) छेदसूत्र मूलतः प्रायश्चित्तसूत्र हैं। व्यवहारभाष्य में आलोचना, व्यवहार और शोधि को प्रायश्चित्त का पर्याय माना गया है।' प्रायश्चित्त के द्वारा चित्त की विशोधि होती है। इस दृष्टि से विचार करें तो छेदसूत्रों को आलोचना सूत्र, प्रायश्चित्त सूत्र अथवा विशोधि सूत्र भी कहा जा सकता है। छेदसूत्रों के लिए 'पदविभाग सामाचारी' शब्द का भी उल्लेख मिलता है। यहां प्रश्न होता है कि फिर इन सूत्रों को 'छेदसूत्र' की संज्ञा क्यों दी गयी?
विद्वानों ने 'छेदसूत्र' नाम की अन्वर्थता के संदर्भ में अनेक दृष्टियों से विमर्श किया है। वह संक्षेप में इस प्रकार है
१. चारित्र के पांच प्रकार हैं। वर्तमान में सामायिक चारित्र इत्वरिक-सीमित काल वाला होता है। छेदोपस्थापनीय चारित्र जीवन पर्यन्त अनुपालनीय होता है। प्रायश्चित्त का संबंध छेदोपस्थापनीय चारित्र से है। इस दृष्टि से प्रायश्चित्त सूत्रों को छेदसूत्र की संज्ञा दे दी गयी-ऐसी संभावना है।
२. दसाओ, कप्पो, ववहारो और निसीहज्झयणं ये चारों नौवें पूर्व से उद्धृत हैं। पूर्वो से छिन्न-पृथक् किए जाने से इस वर्गीकरण के आगमों का नाम छेदसूत्र हो गया।
३. प्रायश्चित्त के दस प्रकारों में मूल, अनवस्थाप्य और पारांचित-इन तीनों में प्रायश्चित्त-प्राप्त मुनि को नयी दीक्षा आती है। साधु की वर्तमान अवस्था में प्राप्त होने वाला अंतिम प्रायश्चित्त छेद है। आलोचना से छेद पर्यन्त प्रायश्चित्त वाले संख्या में भी अधिक होते हैं। फलतः प्रायश्चित्त सूत्रों का छेदसूत्र नामकरण हो गया ऐसा प्रतीत होता है।
४. आवश्यक नियुक्ति की वृत्ति में छेद और पदविभाग इन दोनों को समानार्थक माना गया है। वहां प्रायश्चित्तसूत्रों के लिए पहले पदविभाग सामाचारी शब्द के प्रयोग का भी उल्लेख है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि 'छेद' शब्द पदविभाग सामाचारी के अर्थ में प्रयुक्त है। उल्लेखनीय है कि छेदसूत्रों का परस्पर कोई संबंध नहीं है। ये सभी स्वतंत्र हैं। इनकी व्याख्या विभागदृष्टि-छेददृष्टि से की गयी है। इसलिए पदविभाग सामाचारी के सूत्रों को छेदसूत्र की संज्ञा दी गई है।
५. आगम काल में छेदश्रुत को उत्तमश्रुत कहा जाता था। भाष्यकार ने भी 'छेयसुयमुत्तमसुयं' कहकर इसकी पुष्टि की है। 'छेदसूत्र' उत्तमश्रुत क्यों? चूर्णिकार ने इस प्रश्न पर विमर्श करते हुए लिखा है-छेदश्रुत (छेदसूत्रों) में प्रायश्चित्तविधि का प्रज्ञापन है। उससे चारित्र की विशुद्धि होती है, इसलिए यह उत्तमश्रुत है। उत्तमश्रुत शब्द पर विचार करते समय एक कल्पना यह भी होती है कि कहीं यह 'छेकश्रुत' तो नहीं है? छेकश्रुत अर्थात् कल्याणश्रुत अथवा उत्तमश्रुत । दशाश्रुतस्कन्ध को छेदश्रुत का मुख्य ग्रंथ माना गया है।' वह प्रायश्चित्त सूत्र नहीं होकर आचार-सूत्र है। इसीलिए उसे चरणकरणानुयोग के विभाग में सम्मिलित किया गया है। इससे छेयसुत्त का छेकसूत्र होना अस्वाभाविक नहीं लगता। दसवेआलियं में 'जं छेयं तं समायरे' पद प्राप्त है। इससे भी 'छेय' शब्द के छेक होने की पुष्टि होती है।
जिससे नियमों के अनुपालन में व्यवधान उत्पन्न न हो तथा निर्मलता की वृद्धि हो, उसे छेद कहते हैं। पंचवस्तु की हरिभद्र कृत टीका में प्राप्त इस उल्लेख के आधार पर भी यह संभावना की जा सकती है कि प्रायश्चित्त-प्रज्ञापक सूत्र ही वस्तुतः निर्मलता और पवित्रता का पथ प्रशस्त करते हैं, अतः वे ही छेदसूत्र हैं। 'छेद' नाम की सार्थकता इसी में निहित है।
१. व्यभा. गा. १०६४
ववहारो आलोयण, सोही पच्छित्तमेव एगट्ठा। २. वही, गा. ३५
पावं छिंदति जम्हा, पायच्छित्तं तु भण्णते तेण ।
पाएण वा वि चित्तं, विसोहए तेण पच्छित्तं । ३. (क) आवनि. ६६५
सामायारी तिविहा ओहे दसहा पयविभागे। (ख) आवहावृ.पृ. १७२-...पदविभागसामाचारी छेदसूत्राणि।..
...पदविभागसामाचार्य्यपि छेदसूत्रलक्षणान्नवमपूर्वादेव नियूंढा। ४. निभा. गा. ६१८४ की चूर्णि पृ. २५३-छेयसुयमुत्तमसुयं......।
छेदसुयं कम्हा उत्तमसुयं? भण्णति-जम्हा एत्थ सपायच्छित्तो विधि भण्णति, जम्हा य तेण चरणविसुद्धी करेति, तम्हा तं उत्तमसुतं। दशाचू. प. २
दसाओ......इमं पुण च्छेयसुत्तप्पमुहभूतं। । ६. दसवे. ४/११ ७. जैसिको. भाग २ पृ. ३०६
बज्झाणुट्ठाणेणं जेण ण बाहिज्जए तयं णियमा। संभवइ य परिसुद्धं सो पुण धम्मम्मि छेउ त्ति।