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निसीहज्झयणं
उद्देशक ५ : सूत्र ५९-६६ .५९. जे भिक्खू हरिय-वीणियं वाएति,
वाएंतं वा सातिज्जति॥
यो भिक्षुः हरितवीणिकां वादयति, वादयन्तं वा स्वदते।
५९. जो भिक्षु हरित से वीणा बजाता है अथवा
बजाने वाले का अनुमोदन करता है।
६०. एवं अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि
अणुदिण्णाइं सद्दाइं उदीरेति, उदीरेंतं वा सातिज्जति॥
एवमन्यतरान् वा तथाप्रकारान् अनुदीर्णान् शब्दान् उदीरयति, उदीरयन्तं वा स्वदते।
६०. इसी प्रकार अन्य उसी प्रकार के अनुदीर्ण
शब्दों (तत, वितत आदि अनुत्पन्न वाद्यशब्दों) की उदीरणा करता है अथवा उदीरणा करने वाले का अनुमोदन करता है।
सेज्जा -पदं
शय्या-पदम्
शय्या-पद ६१. जे भिक्खू उद्देसियं सेज्जं यो भिक्षुः औद्देशिकी शय्याम् ६१. जो भिक्षु औद्देशिक शय्या में अनुप्रविष्ट
अणुपविसति, अणुपविसंतं वा अनुप्रविशति, अनुप्रविशन्तं वा स्वदते। होता है अथवा अनुप्रविष्ट होने वाले की सातिज्जति॥
अनुमोदन करता है।
६२. जे भिक्खू सपाहुडियं सेज्ज यो भिक्षुः सप्राभृतिकां शय्याम् ६२. जो भिक्षु प्राभृतिका युक्त शय्या में
अणुपविसति, अणुपविसंतं वा अनुप्रविशति, अनुप्रविशन्तं वा स्वदते। अनुप्रविष्ट होता है अथवा अनुप्रविष्ट होने सातिज्जति॥
वाले का अनुमोदन करता है।
६३. जे भिक्खू सपरिकम्मं सेज्जं
अणुपविसति, अणुपविसंतं वा सातिज्जति॥
यो भिक्षुः सपरिकर्मा शय्याम् ६३. जो भिक्षु परिकर्मयुक्त शय्या में अनुप्रविष्ट अनुप्रविशति, अनुप्रविशन्तं वा स्वदते। होता है अथवा अनुप्रविष्ट होने वाले का
अनुमोदन करता है।१२
संभोगवत्तियकिरिया-पदं संभोगप्रत्ययक्रिया-पदम्
संभोजप्रत्ययिक क्रिया-पद ६४. जे भिक्खू णत्थि संभोगवत्तिया- यो भिक्षुः 'नास्ति संभोगप्रत्यया क्रिया' ६४. संभोज-प्रत्ययिक क्रिया (कर्मबन्धन) नहीं किरियत्ति' वदति, वदंतं वा इति वदति, वदन्तं वा स्वदते।
है' जो भिक्षु ऐसा कहता है अथवा कहने सातिज्जति॥
वाले का अनुमोदन करता है। १३
धारणिज्ज-परिढवण-पदं
धारणीय-परिष्ठापन-पदम् ६५. जे भिक्खू लाउयपायं वा दारुपायं ___ यो भिक्षुः अलाबुपात्रं वा दारुपात्रं वा
वा मट्टियापायं वा अलं थिरं धुवं मृत्तिकापात्रं वा अलं स्थिरं ध्रुवं धारणीयं धारणिज्जं परिभिदिय-परिभिंदिय परिभिद्य-परिभिद्य परिष्ठापयति, परिशवेति, परिहवेंतं वासातिज्जति॥ परिष्ठापयन्तं वा स्वदते ।
धारणीय का परिष्ठापन-पद ६५. जो भिक्षु अलं (पर्याप्त/प्रमाणोपेत), स्थिर,
ध्रुव एवं धारण करने योग्य तुम्बे के पात्र, लकड़ी के पात्र अथवा मिट्टी के पात्र को तोड़-तोड़ कर परिष्ठापित करता है अथवा परिष्ठापित करने वाले का अनुमोदन करता
.६६. जे भिक्खू वत्थं वा कंबलं वा यो भिक्षुः वस्त्रं वा कम्बलं वा
पायपुंछणयं वा अलं थिरं धुवं पादप्रोञ्छनकं वा अलं स्थिरं ध्रुवं धारणीयं धारणिज्जं पलिछिंदिय-पलिछिंदिय परिछिद्य-परिछिद्य परिष्ठापयति, परिटुवेति, परिवेंतं वा सातिज्जति॥ परिष्ठापयन्तं वा स्वदते।
६६. जो भिक्षु अलं (पर्याप्त/प्रमाणोपेत) स्थिर,
ध्रुव एवं धारण करने योग्य वस्त्र, कंबल अथवा पादप्रोञ्छन को फाड़-फाड़ कर परिष्ठापित करता है अथवा परिष्ठापित करने वाले का अनुमोदन करता है।