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आमुख
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निसीहज्झयणं आदि से संबद्ध शीर्षद्वारिका पर्यन्त चौवन सूत्रों वाला सम्पूर्ण आलापक 'अण्णमण्णस्स' पद के साथ पुनरुक्त हुआ है क्योंकि स्वयं के पादपरिकर्म आदि के समान परस्पर पाद-परिकर्म आदि क्रियाएं भी निरर्थक की जाएं तो बाकुशिकत्व, स्वयं एवं दूसरे की मोहोदीरणा, सूत्रार्थ-पलिमंथु आदि दोषों की हेतु बनती हैं। उपर्युक्त दोनों उद्देशकों में दूसरी समानता है दोनों में ही 'उच्चार-प्रस्रवण पद' में दस-दस सूत्र आए हैं। तीसरे उद्देशक में अस्थान-गृह, गृहमुख आदि में परिष्ठापन का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है जबकि प्रस्तुत उद्देशक में परिष्ठापनिका समिति की अविधि का प्रायश्चित्त निरूपित है। इनमें मुख्यतः उच्चार-प्रस्रवण सम्बन्धी स्थंडिल की संख्या, स्थंडिल का परिमाण, परिष्ठापन-विधि तथा परिष्ठापन के पश्चात् समाचरणीय विधि आदि सभी से सम्बन्धित मुख्य-मुख्य सभी अतिक्रमणों का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। संभवतः सम्पूर्ण आगम-वाङ्मय में उच्चार-प्रस्रवण के परिष्ठापन से सम्बन्धित ये समस्त निर्देश एक संलग्न आलापक में इसी आगम में प्राप्त होते हैं।
प्रस्तुत उद्देशक के भाष्य एवं उसकी चूर्णि में स्थापना-कुल, वैयावृत्य, अधिकरण (कलह), निर्ग्रन्थी-उपाश्रय में आचार्य आदि के समागमन के कारण तथा साधु-साध्वी की परस्पर परिचर्या आदि अनेक विषयों का विस्तृत एवं हृदयस्पर्शी वर्णन उपलब्ध होता है।