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________________ 98 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा मूलगुणभेदा भवन्ति। अर्थात् वस्तुतः आत्मा के केवलज्ञानादि अनन्तगुण मूलगुण हैं, और वे मूलगुण निर्विकल्प समाधि रूप परम सामायिक नाम निश्चय एक व्रत रूप मोक्ष के कारण होने से मोक्ष के होने पर सभी प्रगट होते हैं। अतः वह सामायिक मूलगुण केवलज्ञानादि गुणों की प्रगटता में कारण होने से सामायिक को ही निश्चय से श्रमण का एक ही मुलगण कहा गया है। परन्तु जब वह श्रमण निर्विकल्प समाधिस्थ की सामर्थ्य नहीं रख पाता है तब उसकी वहिरंग प्रवृत्ति भी इस प्रकार की होती है, कि जिससे उसे अन्तरंग मूलगुण रूप सामायिक की ओर प्रेरित रख सके। अतः उसकी वहिरंग सर्वांगीण प्रवृत्ति 28 प्रकार से मूलगुण के प्रति सन्मुख होती है। क्योंकि 28 मूलगुणों के द्वारा आत्मा का शुद्ध स्वरूप साध्य है। 28 मूलगुण उसके यथार्थ स्वरूप के नियामक नहीं, परन्तु सामायिक च्युत श्रमण की वहिरंग प्रवृत्ति 28 मूलगुणों से हीनाधिक नहीं होती है। अतः 28 मूलगुण यह श्रमण का यथार्थ स्वरूप नहीं, अपितु सामायिक च्युत श्रमण की ये 28 ही गतिविधियां होती हैं-यह त्रिकाल नियम है। उदाहरणार्थ -टीकाकार ने कहा कि जैसे सुवर्णार्थी साक्षात सोने को प्राप्त न कर सकने के कारण वह विभिन्न गहनों के रूप में सोने को प्राप्त करना चाहता है। यद्यपि यह कोई नियम नहीं कि आभूषण का अभिलाषी सोने का इच्छुक होवे ही होवे, परन्तु सुवर्णार्थी को तो कोई न कोई रूप तो सोने का लेना ही पड़ेगा, अर्थात् आभूषण पर्याय की सुवर्ण के साथ व्याप्ति नहीं, वह तो चाँदी का भी आभूषण ले सकता है। परन्तु सुवर्ण की आभूषणादि पर्यायों के साथ व्याप्ति है कि उसे कोई न कोई पर्याय ग्रहण करनी ही होगी। उसी प्रकार नन्तरंग सामायिक के इच्छुक को निरन्तर सामायिक में न ठहर सकने के कारण उत्कृष्ट नेष्कलंक वहिरंग प्रवृत्ति रूप 28 मूलगुणात्मक स्वरूप को स्वीकारना ही होगा, परन्तु पहिरंग प्रवृत्ति की अन्तरंग प्रवृत्ति के साथ नियामकता नहीं है। मूलगुण " इस प्रकार निश्चय मूलगुण एवं व्यवहार मूलगुण की चर्चा उपर्युक्त टीका में की है। व्यवहार से 28 मूलगुणों को निम्न प्रकार से आ. कुन्दकुन्द ने कहा है कि(1) पाँच महाव्रत - (1) अहिंसा महाव्रत, (2) सत्य महाव्रत, ( 3 ) अचौर्य महाव्रत, (4) परिग्रह त्याग महाव्रत, (5) ब्रह्मचर्य महाव्रत (2) पाँच समिति - (6) ईर्यासमिति (7) भाषासमिति (8) एषणासमिति (9) आदान-निक्षेपणसमिति ( 10 ) प्रतिष्ठापना समिति पाँच इन्द्रिय निरोध - (11) स्पर्शन इन्द्रिय निरोध (12) रसनेन्द्रिय निरोध (13) घ्राणेन्द्रिय निरोध (14) चक्षु इन्द्रिय निरोध ( 15 ) कर्णेन्द्रिय निरोध। (4) षडावश्यक - (16) समता (17) स्तुति, (18) वंदना ( 19 ) प्रतिक्रमण ( 20 ) प्रत्याख्यान (21) व्युत्सर्गः तथा शेष गुण- ( 22 ) केशलोंच ( 23 ) आचेलक्य (24) अस्नानव्रत
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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