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________________ मूलगुण 99 (25) भूमिशयन (26) अदंतधावन (27) खडे-खडे भोजन (28) एक भुक्ताहार। मूलगुणों की संख्या के विचार में, श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने 27 मूलगुण माने हैं, जो . दिगम्बर सम्प्रदाय से अत्यन्त भेद रखते हैं। यद्यपि पंचमहाव्रत व इन्द्रयजय में समानता भी है। वे निम्न हैं। (1) प्राणातिपात विरमण (2 ) मृपावाद विरमण (3) अदत्तादान विरमण ( 4 ) मैथुन विरमण (5) परिग्रह विरमणः (6) श्रोत्र (7) चक्षु (8) घ्राण (9) रसना (10) स्पर्श - इन पाँच इन्द्रियों का दमन; (11) क्रोध त्याग (12) मान त्याग ( 13 ) माया त्याग (14) लोभ त्याग (15) भाव सत्य (16) करण सत्य (17) योग सत्य (18) मा (19) विरागता (20) मन-समाधारणता (21) वचन समाधारणता (22) कायसमाधारणता (23) ज्ञान सम्पन्नता (24 ) दर्शन-सम्पन्नता (25) चारित्र सम्पन्नता (26 ) वेदना - अधिसहन ( 27 ) मरणान्तिक अधिसहन यहाँ दिगम्बर परम्परा के केशलोंच, अस्नान, अदन्तधावन, नग्नता, स्थितभोजन और एकभक्त, आदि का उल्लेख नहीं है, तथापि इस परम्परा के आगम में नग्नता के उल्लेख पाये जाते हैं, जिसका वर्णन आगे किया जायेगा। जैन श्रमण की शुद्धता का मापदण्ड उसकी चारित्रिक शुद्धता से है न कि क्षायोपशमिक ज्ञान के विकास से, इसी कारण श्रमण के 28 मूलगुण भी उसके चारित्रिक गुणों पर ही आधारित हैं। श्रमण के इन व्यवहार मूलगुणों का स्वरूप बतलाते हुए मूलाचार में कहा है कि "मूलगुणेसु"-मूलानि च तानि गुणाश्च ते मूलगुणाः । मूल शब्दोऽनेकार्थे यद्यपि वर्तते तथापि प्रधनार्थ वर्तमानः परिगृह्यते । तथा गुणा शब्दोऽप्यनेकार्थे यद्यपि वर्तते तथा प्याचरणविशेष वर्तमानः परिगृहते । मूलगुणाः प्रधानानुष्ठानानि उत्तरगूणाधार भूतानि तेषु मूलगुणेषु विषयभूतेषु कारणभूतेषु वा सत्सु ये । अर्थात् मूलभूत जो गुण हैं वे मूलगुण कहलाते हैं। यद्यपि "मूल" शब्द अनेक अर्थ में रहता है, फिर भी यहाँ पर प्रधान अर्थ में लिया गया है। उसी प्रकार "गुण" शब्द भी यद्यपि अनेक अर्थ में विद्यमान है तथापि यहाँ पर आचरण विशेष में वर्तमान अर्थ ग्रहण किया गया है। अतः उत्तरगुणों के लिए आधारभूत प्रधान अनुष्ठान को मूलगुण कहते हैं। ये गुण 28 मूलगुण और 34 उत्तरगुण जीव के शुभभावात्मक परिणाम हैं। इन 34 उत्तरगुणों के आधार 28 मूलगुण ही हैं। अतः 28 मूलगुणों के निर्दोष पालने पर ही 34 उत्तरगुण पल सकते हैं। परन्तु मूलगुणों को छोड़कर केवल शेष उत्तरगुणों के परिपालन में ही प्रयत्न करने वाले तथा निरन्तर पूजा
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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