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________________ श्रमण और उसका धर्म 95 जैन धर्म में श्रावक के ग्यारह भेद किये हैं, जिनको कि शास्त्रीय भाषा में प्रतिमा कहते हैं, तो प्रश्न है कि किस प्रतिमा के आधार पर श्रमण का स्वरूप निर्धारण हो ? पहली "दर्शन प्रतिमा" के आधार पर या ग्यारहवीं प्रतिमा के आधार पर हो, और फिर जैन दर्शन में इन प्रतिमाओं से पृथक सामान्यतः जैनधर्म के पक्षधर को भी पाक्षिक श्रावक कहा है। अतः ऐसे श्रावक के आधार पर निर्णीत श्रमण के स्वरूप की क्या संगति हांगी 2 एक सूफी कथा प्रचलित है कि एक बालक बाग से गुजरा,उसने फल-फूल ताड़े यहाँ तक वृक्षभी तोड़ डाले, परन्तु बागवान ने कुछ भी न कहा। उसके पीछे ही एक संत गुजरा, उसन आवश्यकतावश एक मामूली पत्ता तोड़ डाला। बागवान ने उसे पकड़ लिया। संत ने कहा कि कुछ समय पूर्व एक बालक गुजरा, उसने सारा बाग ही तहस-नहस कर दिया उससे कुछ भी नहीं कहा, मैंने मात्र एक पत्ता वह भी अपनी आवश्यकतावश तोड़ा, तो तुमने मेरा हाथ पकड़ लिया, जबकि मैं एक संत तुम्हारा पूजनीक और आदर्श भी हूँ। बागवान ने कहा, इसलिए कि तुम मेरे पूज्य एवं आदर्श थे, मैंने तुम्हारा हाथ ऐसा न करने के लिए पकड़ा। जब तुम संत पथ में दीक्षित हुए थे, तो तुमने ईश्वर की साक्षी में सार्वजनिक रूप से यह प्रतिज्ञा की थी कि, मैं जीवन में कभी भी सूक्ष्म जीवों की मन वचन काय से हिंसा को नहीं करूँगा और बिना आज्ञा के अपनी अति आवश्यकता की पूर्ति भी नहीं करूंगा। इसी प्रकार से पंच प्रकार के पापों के त्याग की प्रतिज्ञा ली थी। सामान्य जन ऐसा व्रत स्वीकार नहीं कर पाते हैं, परन्तु ऐसा करने के लिए तुम्हें आदर्श/वंदनीक माना था। तुमने मेरे बाग का पत्ता तोड़ा। अतः एकेन्द्रिय जीव की हिंसा की एवं चोरी का दाप भी लगा, मात्र बात इतनी नहीं है, परन्तु तुम्हें देखकर अन्य जन भी ऐसा करते, क्योंकि तुम आदर्श पुरुष थे, ऐसी स्थिति में मेरे बाग का पत्ता भी नहीं बचता। अतः मैंन तुम्हारा हाथ अपनी सरक्षा हेत पकडा। बच्चे को इस कारण से नहीं पकडा कि वह नासमझ है. माया-जाल में फंसा हुआ है और तो और वह किसी का आदर्श भी नहीं हैं, अतः उसने जितना बाग उजाड़ा उतना ही उजड़ा, अब नहीं उजड़ेगा, क्योंकि वह किसी का आदर्श नहीं था। उसको देखकर अन्य वैसा नहीं करेंगे। अतः बच्चे के द्वारा उजाड़ा गया बाग उजड़ा नहीं है, वह कालान्तर में पूर्ववत् हो जाएगा। आप ने भले ही आवश्यकतावश एक पत्ता तोड़ा, परन्तु कल आपकी आवश्यकताएं बढ़ेगी और आप ऐसा करते रहेंगे इससे आदर्श की कल्पना ही समाप्त हो जाएगी। अतः मैंने पतित हो रहे आदर्श को संभाला, व्यक्ति को नहीं, व्यक्तित्व को पकड़ा है। यह घटना आज के सन्दर्भ में भी पूर्णतः घटित है। श्रमण का स्वरूप त्रिकाल निरपेक्ष है। उनके आदर्श की कसौटी अन्य नहीं, क्योंकि वे स्वयं में एक कसौटी है। साधु की अखण्ड त्रिकाल कसौटी के संदर्भ में यदि यह कहा जाए कि वर्तमान में काल अच्छा नहीं है। अतः ऐसी दशा में मात्र वेश को देखकर वंदना कर लेनी चाहिए। और इस सन्दर्भ में वर्तमान पर पूर्व मुनि की छाया को मानकर पूजने जैसी स्थिति में, स्वरूप के बदलाव की
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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