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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
उससे अभिप्राय है, और जो योग और कषाय को निमित्त कर आत्म प्रदेशों के परिस्पंद रूप आभ्यन्तर क्रिया होती है, उससे अभिप्राय है। ज्ञानी के इन दोनों प्रकार की क्रियाओं का निरोध होने पर ही मोक्ष होता है । इसलिए सम्यक्चारित्र में बाह्य और आभ्यन्तर क्रिया का निरोध विवक्षित है । केवल आभ्यन्तर क्रिया का निरोध किसी के नहीं होता, बाह्य क्रिया का निरोध होने पर ही आभ्यन्तर क्रिया का निरोध होना सम्भव है । गुणस्थान प्रक्रिया के अनुसार बाह्य क्रिया का निरोध दसवें गुणस्थान के अन्त में हो जाता है, और आभ्यन्तर क्रिया का निरोध 13 वें गुणस्थान के अन्तिम समय में होकर 14 वे गुणस्थान में अयोगकेवली की अवस्था में अन्तर्मुहूर्त रहकर यह जीव मोक्ष का पात्र बनता है । इसलिए चरणानुयोग आगम में बाह्य क्रिया के निरोध पर बहुत बल दिया गया है 1
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जो मिथ्यादृष्टि हैं, वे भले ही बाह्य चारित्र का पालन करें मुनि वेश लेकर उग्र तप करें, फिर भी सम्यग्दृष्टि अर्थात् स्वावलम्बन की दृष्टि वाले न होने के कारण वे द्रव्यलिंगी ही बने रहते हैं, और मोक्ष के पात्र नहीं हो पाते इसलिए चरणानुयोग के आगम में भी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक चारित्र का लक्षण बाँधते हुए कहा है कि- "मोह (मिथ्यात्व) रूपी अंधकार के विनाश होने पर सम्यग्दर्शन पूर्वक सम्यग्ज्ञानी के राग द्वेष की निवृत्ति के अभिप्राय से सम्यग्चारित्र होता है।
मोक्षमार्गी बनने का यह एक मात्र उपाय है। इसके बिना कोई भी राग द्वेष का अभाव करके मोक्ष का पात्र नहीं हो सकता है। इसलिए जिनागम में बाह्य चारित्र पर उतना ही बल दिया गया है, जितना कि आत्मस्थ होने के लिये बल दिया जाता है।
1. मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभदवाप्त संज्ञानः ।
रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।। 2 ।। र. श्रा. 46