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________________ भूमिका सम्पूर्ण जिनागम चार अनुयोगों में विभक्त है। उनके नाम हैं (1) प्रथमानुयोग, (2) करणानुयोग, (3) चरणानुयोग, (4) और द्रव्यानयोग। उनमें से चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग में निकट का सम्बन्ध है, क्योंकि बाह्यदृष्टि से विचार करने पर शरीर और आत्मा का एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध होने से शारीराश्रित क्रिया के साथ आत्मा के उपयोग में विषय और कषाय के प्रति रुचि और अरुचि होना सम्भव है। करणानुयोग उनके रुचि और अरुचिरूप तारतम्य अवस्था का प्रतिपादन करता है। इसलिए जीवन निर्माण की दिशा में इन तीनों अनुयोग द्वारों का अत्यन्त उपयोग है। जो प्रथमानुयोग है वह मात्र उदाहरण स्वरूप है। उसके द्वारा हमें इतना ही ज्ञान होता है कि संसार के विरुद्ध प्रवृत्ति करने वालों की क्या-क्या अवस्थाएँ होती हैं, और संसार के अनुकूल प्रवृत्ति करने वालों की क्या-क्या अवस्थाएँ होती है। यह निबन्ध मुख्यतः चरणानुयोग के आधार पर ही लिखा गया है। इसलिए इस निबन्ध की जीवन में क्या उपयोगिता है। इसके आधार से हम यहाँ विचार करेंगे। चरणानुयोग का मूलसूत्र है, कि कैसे चलें? कैसे खड़े रहें? कैसे बैठे? कैसे सोवें? कैसे भोजन करें? और कैसे बोलें? जिससे यह जीव पाप से लिप्त न हो। चरणानुयोग शास्त्र में इसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि देख कर चलें, आजू-बाजू की परिस्थिति को देखकर खड़े रहें, समझकर अनुकूल स्थान पर बैठे, अनुकूल भोजन लें, उचित स्थान पर सोवें, और हित, मित, प्रिय वचन बोलें, जिससे यह जीव पाप से लिप्त न होवे। इस आधार पर जब हम चरणानुयोग आगम के अनुसार विचार करते है, तो हमें मोक्षमार्ग के अनुकूल बाह्य जीवन का निर्माण करने में सहायता (अनुकूलता) मिलती है, क्योंकि सर्वार्थसिद्धि में सम्यक चारित्र का लक्षण करते हुए कहा है कि संसार के कारणों से निवृत्त होने के लिए जो उद्यत ज्ञानी है उसकी ज्ञानावरणादि कमों के ग्रहण करने में निमित्तभूत क्रिया का उपरम होना सम्यक् चारित्र है। इसमें शरीराश्रित जो बाह्य क्रिया होती है,
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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