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________________ श्वेताम्बर सम्प्रदाय और उसके भेद 8.२ चैत्यवासी श्वेताम्बर सम्प्रदाय में वनवासी साधुओं के विपरीत लगभग चतुर्थ-शताब्दी में एक चैत्यवासी साध सम्प्रदाय खडा हो गया, जिसने वनों को छोडकर चैत्य-मन्दिरों में निवास करना और ग्रन्थ संग्रह के लिए आवश्यक द्रव्य रखना उचित माना। इसी के पोषण में उन्होंने निगम नामक शास्त्रों की रचना भी की। हरिभद्रसूरि ने चैत्यवासियों की ही निन्दा अपने संबोध प्रकरण में की है। चैत्यवासियों ने 45 आगमों को प्रामाणिक स्वीकार किया वि.सं. 802 में अणहिलपुर पट्टाण के राजा चावड़ा ने अपने चैत्यवासी गुरु शीलगुण सूरि की आज्ञा से यह निर्देश दिया कि इस नगर में वनवासी साधुओं का प्रवेश नहीं हो सकेगा। इससे यह पता चलता है कि आठवीं शताब्दी तक चैत्यवासी सम्प्रदाय का प्रभाव काफी बढ़ गया था। बाद में वि.सं. 1070 में दुर्लभदेव की सभा में जिनेश्वर सूरि और बुद्धि सागर सूरि ने चैत्यवासी साधुओं से शास्त्रार्थ करके उक्त निर्देश को वापिस कराया। इसी उपलक्ष्य में राजा दुर्लभदेव ने वनवासियों को "खरतर" का नाम दिया। इस नाम पर "खरतरगच्छ" की स्थापना हुई। विविध गच्छ श्वेताम्बर सम्प्रदाय कालान्तर में विविध गच्छों में विभक्त हो गया जिनमें प्रमुख गच्छ निम्न हैं। 1. उपदेश गच्छ :- पार्श्वनाथ का अनुयायी केशी इसका संस्थापक कहा जाता है। 2. खरतरगच्छ :- ऊपर कथित कथनानुसार इस गच्छ की स्थापना हुयी। इसमें दस गच्छ भेद हुए जिनमें मूर्ति प्रतिष्ठा, मंदिर निर्माण आदि होते हैं। इनके विभिन्न गच्छ भेद ये हैं : (1) मधुखरतरगच्छ (2) लघुखरतरगच्छ (3) वेगड़ खरतरगच्छ (4) पीप्पालक गच्छ (5) आचारीय खरतरगच्छ (6) भावहर्ष खरतरगच्छ (7) लघुबाचार्टीय खरतरगच्छ ( 8 ) रंगविजय खरतरगच्छ (9) श्री सारीय खरतरगच्छ। तपागच्छ_ वि.सं. 1865 में जगच्चन्द्रसूरि की कठोर साधना से प्रभावित होकर मेवाड़ नरेश जैत्रसिंह ने उन्हें "तपा" नामक विरुद से अलंकृत किया। जगच्चन्द्रसूरि मूलतः निर्गन्य गच्छ के अनुयायी थे। "तपा" विरद के मिलने पर निर्ग्रन्थगच्छ का नाम तपागच्छ हो गया। कालान्तर में उन्हीं के अन्यतम शिष्य विजयचन्द्र सूरि ने शिथिलाचार को प्रोत्साहित किया और यह स्थापित किया कि साधु अनेक वस्त्र रख सकता है, उन्हें धो सकता है, घी, दूध, शाक, फल आदि खा सकता है, तथा साध्वी द्वारा आनीत भोजन ग्रहण कर सकता है।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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