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जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा
(घ) भारतीय साहित्य में जैन श्रमण
1. संस्कृत साहित्य में
भारतीय संस्कृत साहित्य में जैन श्रमणों के उल्लेख मिलते हैं । इस साहित्य से अभिप्राय उस सर्वसाधारणोपयोगी संस्कृत साहित्य से है जो किसी विशेष सम्प्रदाय से नहीं कहा जा सकता है। संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध कवि भर्तृहरि के वैराग्यशतक का निम्न छन्द द्रष्टव्य है:
"पाणिः पात्रं पवित्रं भ्रमणपरिगतं भैक्षमक्षयमन्नं ।
विस्तीर्णवस्त्रमा शासुदशकममलं तल्पमस्यल्पमुर्वी ।। येषां निःसंगतागीकरणपरिणतिः स्वात्मसन्तोषितास्ते । धन्याः सन्यस्तदैन्यव्यतिकर निकराः कर्म निर्मूलयन्ति । ।
अर्थात् जिनका हाथ ही पवित्र बर्तन है, मांग कर लायी हुयी भीख ही जिनका भोजन है, दशों दिशाएं ही जिनके वस्त्र हैं, सम्पूर्ण पृथ्वी ही जिनकी शय्या है, एकान्त में निःसंग रहना ही जो पसन्द करते हैं, दीनता को जिन्होंने छोड़ दिया है तथा कर्मों को जिन्होनें निर्मूल कर दिया है, और जो अपने में ही सन्तुष्ट रहते हैं, उन पुरुषों को धन्य है । इसी शतक में कविवर दिगम्बर मुनिवत्चर्या करने की भावना करते हैं -
" अशीमहि वयं भिक्षामाशावासोवसीमहि ।
शीमहि महीपृष्ठे कुर्वीमहि किमीश्वरैः ।। 90 ।।
अर्थात् "अब हम भिक्षा ही करके भोजन करेंगे, दिशा ही के वस्त्र धारण करेंगे अर्थात् नग्न रहेंगे और भूमि पर ही शयन करेंगे। फिर हमें धनवानों से क्या मतलब?
वैराग्यशतक के उपर्युक्त श्लोक निःसन्देह दिगम्बर साधुओं को लक्ष्य करके ही लिखे गये हैं। मुद्राराक्षस नाटक में क्षपणक जीवसिद्धि का अभिनय दिगम्बर श्रमण का ही द्योतक है। इस नाटक के पूर्व अंक के द्वितीय श्लोक में जीवसिद्धि से अलहंताणं पणमामि" अर्थात् "अर्हतों को नमस्कार करता हूँ" कहता है जो कि जैनत्व का पर्याय है ।
वराहमिहिर संहिता में भी दि. मुनियों का उल्लेख है । उन्हें वहाँ जिन/भगवान् का उपासक बतलाया है। शाक्यान् सर्वहितस्य शांतिमनसो नग्नान् जिनानां विदुः ।।19 ।।
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अर्हत् भगवान की मूर्ति को भी वह नग्न ही बतलाते हैं ।
"आजानु लम्बवाहुः श्रीवत्साक प्रशान्तमूर्तिश्च
दिवासास्तरुणोरूपवांश्च कार्योऽर्हतां देवः । 145 - 48 ।। व.मि. संहिता