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________________ जैन श्रमण और हिन्दु धर्म जाबालोपनिषद् I "तत्र परमहंसानामसंवर्तकारु णिश्वेत केतुदुर्वासश्रृमुनिदाघजऽभरत.. यथाजात रुपधरो निर्ग्रन्थो निष्परिग्रहस्तद्वह्ममार्गे सम्यक् सम्पन्नः इत्यादि । 44 परमहंसोपनिषद् " इदमन्तरंज्ञात्वा स परमहंस आकाशाम्बरो न नमस्कारो न स्वाहा करो न निन्दा न स्तुर्तियादृच्छिको भवेत्स भिक्षुः "45 39 नारद परिव्राजकोपनिषद् "यथाविधिश्चेज्जात रुपधरो भूत्वा... . जातरूपधरश्चरेदात्मा नमन्विच्छेयथा जातरूपधरो निर्द्वन्दो निष्परिग्रहस्तत्व व्रहमणमार्गे सम्यक् सम्पन्नः । तृतीयोपदेशः "46 तुरीयः परमोहंसः साक्षान्नारायणो यतिः । एकं रात्रं वसेत् ग्रामे नगरे पंचरात्रकम् ( 14 ) वर्षाभ्योऽन्यत्र वर्षासुमासांश्च चतुरोवसेत् । . मुनिः कौपीनवासाः स्यान्नग्नो वा ध्यान वत्सरः ( 32 ) . जातरूपधरो भूत्वा.. . दिगम्बरः ( 38 ) चतुर्थोपदेशः 47 उपर्युक्त उल्लेखों में परिव्राजक को नग्न होने का एवं वर्षाऋतु में एक स्थल पर ही रहने का निर्देश है। परिव्राजकों के षडभेदों में दिखलाया जा चुका है कि उत्कृष्ट प्रकार के परिव्राजक नग्न ही रहते हैं और वह श्रेष्ठतम फल को भी पाते हैं- जैसा कि मिलता भी है - "आतुरो जीवति चेत्क्रम सन्यासः कर्तव्यः ।... आतुर कुटीचकयो भूलोक भूवलौकौ । वहुदकस्य स्वर्गलोकः हंसस्य तपोलोकः । परमहंसस्यऽस्त्यलोकः । तुरीयातीतावधूतयोः स्वस्मन्येव कैवल्यं स्वरुपानुसंधानेन भ्रमरकीट न्यायवत् । 48 उपर्युक्त उद्धरणों के आधार पर सन्यासियों में वस्त्रादिक और दिगम्बरत्व का तात्विक भेद न होता तो उनके परिणामों में इतना पार्थक्य भी नहीं रहता । दिगम्बरत्व ही वास्तविक योगी का रूप हैं और वही कैवल्य का अधिकारी है। इसीलिए उसे "साक्षात् नारायण" कहा गया है। नारद परिव्राजकोपनिषद में दिगम्बरत्व का निम्न उल्लेख प्राप्त होता है "ब्रह्मचर्येण सन्यस्य संन्यासाज्जातरूपधरो वैराग्य सन्यासी " 4 49
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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