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________________ जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा वाला तथा लाभालाभ में समचित्त होकर निर्ममत्व रहने वाला शुक्लध्यानपरायण, अध्यात्मनिष्ठ, शुभाशुभ कर्मों के निर्मूलन करने में तत्पर परमहंस योगी पूर्णानन्द का अद्वितीय अनुभव करने वाला वह ब्रह्म मैं हूँ, ऐसे ब्रह्म प्रणव का स्मरण करता हुआ भ्रमर कीटक न्याय से - तीनों शरीरों को छोड़ कर देहत्याग करता है, वह कृतकृत्य होता है, ऐसा उपनिषदों में कहा है । " 38 प्रस्तुत अवतरण सम्पूर्णतः दिगम्बर जैन श्रमण वृत्ति का सारांश है । फिर भी अवतरण में समागत "शुक्लध्यानपरायण" विशेषण जैन दार्शनिकों की ही अपनी मौलिकता है। जैनेतर दर्शनों में कहीं भी "शुक्लध्यान" का प्रतिपादन नहीं हुआ है। पंतजलि ने भी ध्यान के शुक्लध्यान आदि भेद नही प्रस्तुत किये है। अतः योग ग्रन्थों में आदि योगाचार्य के रूप में जिन आदिनाथ का उल्लेख प्राप्त है, वे जैनियों के आदि तीर्थंकर आदिनाथ से पृथक् प्रतीत नहीं होते हैं। अथर्ववेद के जावालोपनिषद में परमहंस सन्यासी का एक विशेषण "निर्ग्रन्थ "41 भी दिया है। सन्यासोपनिषद् में सन्यासी के छह भेद किये हैं- 42 परन्तु भिक्षुकोपनिषद 3 याज्ञवल्क्य उपनिषद आदि में सन्यासी के चार भेद (1) कुटिचक (2) बहुदक ( 3 ) हंस (4) परमहंस गिनाये हैं । - इन छहों सन्यासियों में आद्य के तीन सन्यासी त्रिदण्ड धारण करने के कारण त्रिदण्डी कहलाये एवं ये शिखा, जटा एवं वस्त्र कौपीन धारण करते हैं । परमहंस सन्यासी शिखा या यज्ञोपवीत जैसे द्विज चिन्ह धारण नहीं करता और वह एक दण्ड एवं एक वस्त्र धारण करता है, देह में भस्म रमाता है, तूरियातीत सन्यासी एकदम नग्न होता है और वह सन्यास नियमों का पालन करता है, अन्तिम अवधूत पूर्ण दिगम्बर एवं निर्द्वन्द है, वह सन्यास नियमों की भी चिन्ता नहीं करता है, परन्तु वह दिगम्बर जैन श्रमणों की तरह केशलोच नहीं करता, वह अपना सिर मुंडवाता है । अवधूत पद तूरियातीत की मरण अवस्था है। इस कारण इन दोनों भेदों का समावेश परमहंस भेद में ही किन्हीं उपनिषदकारों ने गर्भित कर लिया है। उपनिषदकारों के इस प्रकार के लेखों से यह अत्यन्त स्पष्ट है कि एक समय हिन्दू धर्म में भी दिगम्बरत्व का विशेष सम्मान एवं मोक्ष का साक्षात साधन माना गया था, जो कि जैन श्रमणों का प्राण एवं विशेष बाह्य चिन्ह है। यहाँ पर उपनिषदादि वैदिक साहित्य में जो भी उल्लेख दिगम्बर साधु से सम्बन्धित प्राप्त होते हैं। उन पर भी विचार अपेक्षित हैं। 1
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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