SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -जैन श्रमण के पर्यायवाची नाम 33 शमन करते हुए सभी भावों एवं प्राणियों के प्रति समभाव रखता है वही श्रमण है। इस तरह श्रम, शम और समरुप त्रिरत्नों पर आधारित है श्रमण विचारधारा की पृष्ठ भूमि। जैन श्रमण के पर्यायवाची नाम जैन श्रमण को जैन और जैनेतर साहित्य में अनेक सम्बोधनों से सम्बोधित किया गया है जो कि निम्न हैं1. अनगार - न अगारः इति अनगारः अर्थात् जिसके अगार/गृह नहीं वह गृहत्यागी साधु अनगार है। इस शब्द का प्रयोग मूलाचार10 में अणयार महरिसीणं...... आदि गाथा रूप में हुआ है। इसकी "आचार वृत्ति" में स्पष्ट करते हुए कहा है "न विद्यते गारं गृहं वसस्त्यादिकंयेषां तेऽनगाराः। श्वेताम्बरीय आगमों में भी तं वोसज्जवत्थमणगारे" मिलता है। 2. आर्य - आचार्य शिवार्य 'ने अपने गुरुओं का उल्लेख इसी नाम से किया है-"अज्जजिणणादिगणि-सव्वगुत्तगणि-अज्जमितणंदीण........"12 3. अपरिग्रही - तिलतुषमात्र परिग्रह रहित जैन श्रमण । 4. अहीक - लज्जाहीन, नग्न श्रमण। इस शब्द का प्रयोग जैनेतर साहित्यकारों ने नग्न श्रमणों के लिए घृणा प्रकट करने के उद्देश्य से लिखा है-जैसे बौद्धों के "दाठावंश" में13 इसे अहिरिका सव्वे सद्धादि गुणवज्जिता। यथा सठाच दुप्पन्चा सग्गमोक्ख बिबन्धका (88; बौद्ध नैयायिक धर्मकीर्ति और कमलशील ने भी अहीक नाम का उल्लेख जैनों के लिए किया है। वाचस्पति अभिधान कोष में भी अहीक" को दिगम्बर श्रमण कहा है-"अहीक' क्षपणके तस्य दिगम्बरत्वेन लज्जाहीनत्वात् तथात्वम्। श्वे. आचार्य वादिदेवसूरि ने भी अपने "स्याबाद-रत्नाकर" पृष्ठ 230 में दिगम्बर साधु का उल्लेख "अहीक" शब्द से किया है। 5. अकच्छ - लंगोटी रहित जैन श्रमण14 6. अतिथि - जैन श्रमण के नाम के सन्दर्भ में ही सागार धर्मामृत में कहा है कि-"ज्ञानादिसिद्धयर्थं तनुस्थित्यर्थान्नाय यः स्वयम्, यत्नेनातति गेहं वा न तिथिर्यस्य सोऽतिथि:15 अचेलक - वस्त्र रहित श्रमण। इस शब्द का प्रयोग जैन एवं जैनेतर साहित्य में अधिकता से मिलता है। मूलाचार गा. 908 में "अच्चलकं लोचो........." तथा श्वे. आगम आचारांगसूत्र में भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है। वहाँ पर, अजेले परिवुसिए तस्सणं भिक्खुस्सणो एवभवद।16 अचेलए ततो चाई, तं वोसज्ज वत्थमणगारे।17
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy