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________________ जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा जब यह तथ्य सामने आता है तो यह निराशावादी दर्शन सा लगता है कि, एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का भला बुरा नहीं कर सकता है अर्थात् दूसरे का कुछ भी नहीं कर सकते हैं। परन्तु यहाँ इस ओर भी ध्यान जाना चाहिए कि जब हम किसी का कुछ कर नहीं सकते हैं या करने की आवश्यकता नहीं है तो, जगत के अन्य सभी द्रव्य मिलकर मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते हैं, इसमें अपनी अनन्त शक्ति का बोध भी होना तो 'चाहिए। 32 वस्तुतः श्रम तो स्वसत्ता में ही होता है परन्तु उसे स्वाधीन होना चाहिए। कर्त्ता उसे ही कहते हैं जो कार्य की सम्पन्नता के लिए स्वतंत्र है।' उसे किसी भी प्रकार से दूसरे की अपेक्षा न रखनी पड़े तथा वह स्वयं उस कार्य रूप से परिणमित हो ।" वही उस कार्य का कर्ता कहा जा सकता है और वही उसका श्रम उद्योग है। अतः श्रमण-धर्म आत्मद्रव्य में श्रम स्थापित करने के लिए स्वीकार किया जाता है न कि लोकोपकार आदि की भावना के वश होकर । भगवती आराधना में व्युत्पत्ति करते हुए कहा कि " श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः । श्रमण शब्दस्य पुंसि प्रवृत्ति निमित्त तपः क्रिया श्रामण्यं" अर्थात् जो तपस्या करता श्रमण है, श्रमण शब्द की पुरुषत्व की प्रवृत्ति में निमित्त होने से तपः क्रिया श्रामण्य है। 7 श्वेता० आगम दशवैकालिक में तो कहा है कि जो दूसरों से सेवा नहीं लेता वही सच्चा श्रमण है। भ्रमण से लोकोपकार भी होता है इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं, परन्तु उनका चरम लक्ष्य यह नहीं होता है। श्रमण का चरम लक्ष्य तो आत्म साधना ही होता है। वही उनका उद्यम / व्यवसाय है । यह श्रमण शब्द का भाव है । जैन दर्शन में चूंकि ईश्वर मार्ग द्रष्टा है, सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता नहीं इसीलिए उसे ऐसे भावों की आवश्यकता पड़ी कि जिसमें स्वावलम्बन की प्रवृत्ति जगे और वही सबका आधार स्तम्भ हो । अतः उसने श्रमण चर्या अपनायी जिससे स्वरुप में सेतत सजगता एवं स्वावलम्बन का प्रस्फुटन होता रहे । श्रमण शब्द का प्रयोग बौद्ध और सांख्यों में भी हुआ है, परन्तु जैन धर्म के परिप्रेक्ष्य में प्रयुक्त यह श्रमण शब्द ज्यादा सार्थक है। शमन का अर्थ है - " शान्त करना" । अर्थात श्रमण अपने राग-द्वेष आदि चिविकारों को भेद विज्ञान के बल से शान्त कर अनन्त शक्तियों में मग्न रहता है, अतः उसे शमन कहते हैं । समण = सममणो "समणो" समणस्य भावो सामण्णं । क्वचिदप्यननुगत रागद्वेषता समता सामण्ण शब्देनोच्यते । अर्थात जिसका मन सम है वह समण है। समण का भाव सामण्ण है। किसी भी वस्तु में राग द्वेष न करने रुप समता "सामण्ण" शब्द से कही जाती है। श्रमणचर्या और उसकी संस्कृति की दृष्टि में सभी जीव समान हैं, उनमें वर्णादि जन्य ऊँच-नीच का भेदभाव अर्थात् असमानता नहीं होती । अतः समष्टि रुप में श्रमण शब्द का भावार्थ होगा कि, वह प्राणी जो अपने श्रम के बल पर राग-द्वेष आदि विकृत भावों का
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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