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________________ द्रव्यलिंग/भावलिंग 295 भावलिंग - ___ मोक्षमार्ग का साक्षात् कारण आ. कुन्दकुन्द ने भावलिंग को कहा है। "ज्ञान-दर्शन-चारित्र वास्तविक मार्ग है, मात्र द्रव्यलिंग वास्तव में मोक्षमार्ग नहीं है।44 आ. वट्टकेर कहते हैं कि भाव श्रमण हैं वे ही श्रमण हैं, क्योंकि शेष नामादि श्रमणों को सुगति नहीं होती। धर्म सहित लिंग होता है, लिंग मात्र से धर्म की प्राप्ति नहीं होती। अतः भावरूप धर्म (भावलिंग) को जानो। केवल लिंग से क्या होगा, अर्थात् कुछ भी नहीं होगा।45 भाव ही प्रथम लिंग है, अतः द्रव्यलिंग को परमार्थ नहीं जानना चाहिए, क्योंकि गुण-दोष का कारणभूत भाव ही है। भाव ही स्वर्ग-मोक्ष का कारण है। भाव से रहित श्रमण पाप स्वरूप है. तिर्यन्चगति का स्थानक है और कर्ममल से मलिन है। जो भाव श्रमण हैं, वे परम्परा कल्याण रूप सुख को पाते हैं, जो द्रव्यश्रमण हैं वे मनुष्य कुदेव आदि योनियों में दुःख पाते हैं।46 बाह्य लिंग के साथ अन्तरिंग लिंग की नियामकता नहीं है, परन्तु अन्तरंग निर्विकारता होने पर बाह्य में भी निर्विकारता की सिद्धिरुप वीतरागी नग्नता होगी। समयसार की टीका तात्पर्य वृत्ति में कहा है कि "वहिरंग द्रव्यलिंग के होने पर भावलिंग होता भी है, नहीं भी होता, कोई नियम नहीं है। परन्तु अभ्यन्तर भावलिंग के होने पर सर्व संग के त्याग रूप वहिरंग द्रव्यलिंग अवश्य होता ही है। पं. टोडरमल जी कहते हैं कि "मुनि लिंग बिना तो मोक्ष न होय, परन्तु मुनि लिंग धारै मोक्ष होय अर नाही भी होय।47 भावलिंग के इन स्वरूपों के देखने पर यह स्पष्ट है कि जैन दर्शन में बाह्य वेष को मुक्ति का कारण नहीं माना है, परन्तु बाह्य वेष मनुष्य की मानसिकता का परिचय अवश्य देते हैं। अतः मोक्षमार्ग में वेष का स्थान नहीं, परन्तु मोक्षमार्गियों के बाह्य वेष भी निर्विकारता को लिए हुए होता है। परन्तु प्रधानता अन्तरंग के परिणामों को ही दी गयी है। बाह्य नग्नता तो पशुओं के भी होती है, परन्तु वे मोक्षमार्गी नहीं हो जाते हैं। अतः बाह्य नग्नता को मुख्य स्थान नहीं माना गया है। द्रव्यलिंग - जैनधर्म में किसी जाति/लिंग को मोक्षमार्ग नहीं माना गया है। "बहुत प्रकार के मुनिलिंगों को अथवा गृही लिंगों को ग्रहण करके अज्ञानी यह कहते हैं कि "यह लिंग मोक्षमार्ग है।" परन्तु लिंग मोक्षमार्ग नहीं है, क्योंकि अर्हन्तदेव देह के प्रति निर्ममत्व रहते हुए लिंग को छोड़कर दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सेवन करते हैं।48 तथा जो पुरुष संयम रहित जिनलिंग धारण करता है, वह सब निष्फल है।49 जो मुनि राग अर्थात् अन्तरंग परिग्रह से युक्त हैं जिनस्वरुप की भावना से रहित हैं वे द्रव्य निर्ग्रन्थ हैं। उसे जिनशासन में कही गयी समाधि और बोधि की प्राप्ति नहीं होती है। शरीर आत्मा से भिन्न है और लिंग शरीर-स्वरूप है, तथा श्रामण्य लिंग देहाश्रित नहीं है, अतः बाह्यलिंग आत्मा से भिन्न होने के कारण निश्चय नय से बाह्य लिंग मोक्ष का कारण नहीं है। शरीर ही आत्मा का संसार है अतः जिनको लिंग का ही आग्रह है वे पुरुष संसार से नहीं छूटते हैं।51
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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