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________________ 294 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा उपर्युक्त पुलाक बकुश आदि से श्रमणों में भेद हो जाते हैं और संयम, श्रुत, संघ आदि से उनमें और प्रभेद हो जाते हैं। द्रव्यलिंग-भावलिंग - चिन्ह विशेष को लिंग कहते हैं। न्याय-विनिश्चय टीका में कहा है कि "साध्य के अविनाभावीपनेरुप नियम का निर्णय करना ही जिसका लक्षण है वह लिंग है।36 धवलाकार ने लिंग का लक्षण "अन्यथानुपपत्ति" कहा है। श्रमण वीतरागी व्यक्तित्व होते हैं, और यही उनका लिंग है, चिन्ह है, तथा वीतरागता रूप अन्यथानुपपत्ति लक्षण से ही जैन श्रमण जाने जाते हैं, यह वीतरागता जैन श्रमण के आन्तरिक भावों के साथ लाक्षणिक पहिचान है, उनके आन्तरिक भावों के साथ हुयी वहिरंग शारीरिक प्रवृत्ति की पहिचान हेतु शरीर का वेष एवं उसकी प्रवृत्ति द्रव्यलिंग है। इस प्रकार साधु का लिंग, द्रव्यलिंग और भावलिंग के भेद से दो प्रकार का सिद्ध होता है। भावलिंग सापेक्ष ही द्रव्यलिंग सार्थक है अन्यथा तो बाह्य वेष एक स्वांगमात्र है। आचार्य वट्टकेर ने द्रव्यलिंग का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि "अचेलकत्व केशलोंच, शरीर- संस्कार का त्याग और पिच्छि ये चार लिंग के भेद जानने चाहिए।38 आचार्य कुन्दकुन्द द्रव्य एवं भावलिंग दोनों को बतलाते हुए कहते हैं कि "जन्म समय के रूप जैसा रूपवाला, सिर और दाढ़ी मूछ के बालों का लोंच किया हुआ, शुद्ध (अकिंचन) हिंसादि से रहित और प्रतिकर्म (शारीरिक श्रृंगार ) से रहित लिंग, श्रामण्य का वहिरंग चिन्ह है तथा मूर्छा ( ममत्व) और आरम्भरहित, उपयोग और योग की शुद्धि से युक्त तथा पर की अपेक्षा से रहित ऐसा जिनेन्द्र देव कथित लिंग वह अन्तरंग अर्थात् भावलिंग है, जो मोक्ष का कारण है।39 तथा भावपाहुड में कहते हैं कि, जो देहादि के परिग्रह रहित, मान कपाय से रहित, अपनी आत्मा में लीन है वह साधु भावलिंगी है।40 जैन-दर्शन में सम्यग्दर्शन अर्थात् आत्मश्रद्धान पर विशेष बल दिया गया है, सम्यग्दर्शन के बिना किये गये कार्य की कोई महत्ता नहीं है, जैसे अंक के बिना बिन्दु का कोई स्थान नहीं है। रयणसार में कहा है कि जो जीव परब्रह्म को नहीं जानता है और सम्यग्दर्शन से रहित है। वह न तो गृहस्थ अवस्था में है और न साधु अवस्था में है। केवल लिंग को धारण कर क्या कर सकते हैं? कर्मों का नाश तो सम्यक्त्व पूर्वक जिनलिंग धारण करने से होता है।41 जहाँ सम्यग्दर्शन सहित निर्ग्रन्थ रूप है वही निर्ग्रन्थ है।42 अतः सम्यग्दर्शन रहित लिंग अर्थात् मुनि दीक्षा धारण करना व्यर्थ है। इससे मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती है।43 क्योंकि जिस जीव के सच्चे आप्त, आगम, पदार्थों में सच्ची श्रद्धा ही उत्पन्न नहीं हुयी है, तथा जिसका चित्त मूढ़ताओं से व्याप्त है, उसके संयम की उत्पत्ति ही नहीं हो सकती। अच्छी तरह जानकर और श्रद्धानकर जो नियमों सहित है, उसके संयम है।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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