SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 288
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन श्रमण के भेद-प्रभेद 287 (4) गण - वृद्ध मुनियों के अनुसार चलने वाले मुनियों के समुदाय को गण कहते हैं। (5) कुल दीक्षा देने वाले आचार्य के शिष्य कुल कहलाते हैं। (6) संघ श्रृषि, यति, मुनि और अनगार-इन चार प्रकार के मुनियों का समूह संघ कहलाता है। (7) साधु - जिसने बहुत समय से दीक्षा ली हो वे साधु कहलाते हैं, अथवा जो रत्नत्रय भावना से अपने को साधते हैं उन्हें साधु कहते हैं। (8) मनोज्ञ - ___मोक्षमार्ग प्रभावक, वक्त्वादि गुणों से शोभायमान, जिसकी लोक में अधिक ख्याति हो रही हो ऐसे विद्वान मुनि को मनोज्ञ कहते हैं, चारित्र एवं गुणस्थान की अपेक्षा भेद - __ जैनधर्म में एक वीतराग भाव को चारित्र कहा है, और वह एक ही तरह का होता है, अतः मुनियों के चारित्र की अपेक्षा भेद नहीं किये जा सकते हैं। तथापि वह चारित्र एक साथ पूर्ण प्रकट नहीं होता, किन्तु क्रम-क्रम से प्रगट होता है, अतः इस अपेक्षा से उसमें स्थित मुनियों के भी भेद किये जा सकते हैं। जितने अंश में वीतराग भाव प्रकट होता है, उतने अंश में चारित्र प्रगट होता है। अतः चारित्र में भेद होते हैं। यह चारित्र आचार्य उमास्वामी ने 5 प्रकार का कहा है।20 जिनका स्वरूप निम्न है। 1. सामायिक चारित्र - निश्चलसम्यग्दर्शन की एकाग्रता द्वारा समस्त सावद्य-योग का त्याग करके शुद्धात्म स्वरूप में अभेद होने पर शुभाशुभभावों का त्याग होना सो सामायिक चारित्र है। यह चारित्र छठवें गुणस्थान से लेकर नवमें गुणस्थान तक होता है। 2. छेदोपस्थापना चारित्र - बस और स्थावर जीवों की उत्पत्ति और हिंसा के स्थान छद्यमस्थ के अप्रत्यक्ष है। अतः निरवद्य क्रियाओं में प्रमादवश दोष लगने पर उसका सम्यकरीति से प्रतीकार करना
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy