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________________ संघ में आगन्तुक श्रमण 243 श्वेताम्बर परम्परा के आगम साहित्य में थोड़ी सी पृथकता है। वहाँ कहा है कि "मासकल्प से विचरते हुए श्रमणों को आषाढ मास की पूर्णिमा को चातुर्मास के लिए कल्पता है।255 कल्पनियुक्ति में कहा कि आषाढ मास की पूर्णिमा तक नियत स्थान पर पहुँचकर श्रावण कृष्ण पंचमी से वर्षावास प्रारम्भ कर देना चाहिए। उपयुक्त क्षेत्र न मिलने पर श्रावण कृष्ण दसमी से पाँच-पाँच दिन बढाते-बढाते भाद्र शुक्ल पंचमी तक तो निश्चित ही वर्षावास प्रारम्भ कर देना चाहिए, इस तिथि का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। संघ में आगन्तुक श्रमण : जब कोई श्रमण/आचार्य सल्लेखना के लिए या विशेष साधना अथवा ज्ञान प्राप्ति के लिए अपने संघ से आज्ञा लेकर अपने इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु किसी अन्य गण में जाता है, तो ऐसा श्रमण अन्य गण के आचार्य व श्रमणों के लिए अतिथि या आगन्तुक श्रमण कहलाता है। ऐसे श्रमण का विशेष रूप से वर्णन मूलाचार तथा भगवर्ती आराधना में देखने को मिलता है। "ज्ञान ध्यान तपोरक्तः" स्वरूप वाले जैन श्रमणों उच्च व विशेष ज्ञान की अभिलाषा से अन्य गणों में जाने के उल्लेखों के वर्णन प्रायः जैन पुराणों में देखने को मिल जाते हैं। षड्खण्डागम के रचयिता भूतवलि पुष्पदन्त भी विशेष ज्ञान प्राप्ति की इच्छा से धरसेनाचार्य पास गये थे। तथा धरसेनाचार्य ने भी संघ में शामिल करने के पूर्व उन द्वय मुनिराजों की । विधिवत् परीक्षा ले ली थी। तत्पश्चात् ही उन्हें संघ में शिक्षा हेतु शामिल किया था। जब कोई श्रमण अपने गुरु से सम्पूर्ण श्रुत पढ़ चुका होता है, तो वह धीर, वीर, विद्या, बल और उत्साह आदि सभी गुणों से युक्त होता हुआ, अपने गुरू के पास आकर, विनयपूर्वक मन-वचन-काय से प्रणाम करके प्रयत्न पूर्वक उनसे दूसरे संघ में जाने की अनुमति माँगता हुआ कहता है कि---"हे गुरो! आपके चरणों की कृपा से अब मैं अन्य आयतन (ज्ञान योग्य आचार्य) को प्राप्त करना चाहता हूँ।" इस तरह से वह इस विषय में एक बार ही नहीं, तीन, पाँच अथवा छह बार तक पूँछता है। कारण कि, बार-बार पूछने से विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने में अपना उत्साह तथा आचार्य के प्रति विशेष विनय प्रकट होता है। वह मुनि अपने पूज्य गुरु से पूछकर और आज्ञा प्राप्तकर अपने सहित चार, तीन अथवा दो मुनि साथ लेकर वहाँ को विहार करता है। अकेले जाना उचित नहीं है।20। इसी कारण भूतवलि व पुष्पदन्त मुनिराज अकेले न जाकर दो साथ गये थे। जब कोई साधु समाधिमरण की भावना से अपने गण में द्रव्य-क्षेत्र आदि की दृष्टि से अनुकूलता नहीं पाता है, तो वह गुरु की आज्ञा से दूसरे गण में अनुकूल वातावरण और योग्य आचार्य के सान्निध्य में समाधिमरण करने जा सकता है। परन्तु दूसरे गण के आचार्य आगन्तुक क्षपक की प्रकृति, प्रयोजन आदि भली-भाँति जानकर तथा गणस्थ श्रमणों
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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