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________________ 242 जैन श्रमण : स्वस्प और समीक्षा श्वेताम्बर परम्परा में "पर्युषण कल्प" नाम से वर्षावास का स्वरूप वर्णन मिलता है। वृहत्कल्प भाष्य में इसको "संवत्सर" नाम से कहा गया है।252 परन्तु दिगम्बर परम्परा में यह "वर्षायोग" धारण करना या चातुर्मास आदि से प्रसिद्ध है। लेकिन यह नाम तो चार महीनों को एकत्रित करके दिया गया है। वर्ष के बारह महीनों में ग्रीष्मऋतु (चैत, वैशाख, जेठ, आषाढ़), वर्षाऋतु (श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक), शीतऋतु (मार्गशीर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन ), इन तीन रूप में मौसम की दृष्टि से विभाजित किया गया है। इन्हीं में चार मास के योग रूप वर्षाऋतु को "चातुर्मास" शब्द से रूढ़ किया गया है। यह चातुर्मास का समय अध्ययन और आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से श्रमण व श्रावक दोनों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है। विशेष रूप से यह समय श्रावकों के लिए उतना ही हितकारी व महत्वपूर्ण है, जितना कि मयूर के लिए मेघ तथा कमल के लिए सूर्योदय विकास का सन्देश लिए आता है। इस तरह से श्रमण श्रावकों पर वर्षाऋतु में अमृत की वर्षा करते हुए (तत्वोपदेश से अमरत्व की वर्षा ) चातुर्मास तक कषायों के अभावपूर्वक चतुर्गति के अभाव का दिव्य सन्देश भव्यरूपी चातकों को दिया करते हैं। वर्षायोग ग्रहण-त्याग : अहिंसा महाव्रत के धारी जैन श्रमण गमनागमन के लिए एक क्षेत्र विशेष की मर्यादा बाँध लेते हैं। इसी से एक क्षेत्र विशेष में वर्षा के योग की स्थापना भी करते हैं। परन्तु, चारण ऋद्धिधारी मुनिराज, जिनके कि पैरों से जीवों का घात नहीं होता है, वे वर्षा ऋतु में एक क्षेत्र विशेष की ही मर्यादा नहीं बांधते हैं। जैसे कि चारुदत्त के यहाँ सप्तर्षि चारण ऋद्धिधारी मुनिराज वकाल में आए थे, यह पद्मपुराण के 92 सर्ग के एक कथा प्रसंग से सिद्ध हैं (देखें दीक्षा की पात्रता के प्रकरण में इस कथानक का उद्धरण )। इस वर्षा योग की विधि का स्पष्ट वर्णन मूलाचार आदि में देखने को नहीं मिलता है। परन्तु पण्डित आशाधर जी इसकी विधि बतलाते हुए कहते हैं कि "आषाढ शुक्ला चतुर्दशी की रात्रि के प्रथम प्रहर में पूर्व आदि चारों दिशाओं में प्रदक्षिणा क्रम से लघु चैत्यभक्ति चार बार पढकर सिद्ध भक्ति, योगि भक्ति, पंच गुरु भक्ति और शान्ति भक्ति करते हुए आचार्य आदि साधुओं को वर्षायोग ग्रहण करना चाहिए। और कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि के पिछले प्रहर में इसी विधि से वर्षायोग को छोडना चाहिए।253 __ इसको और विस्तार देते हुए आशाधर कहते हैं कि, जिस जगह पर वर्षायोग करना है, उस जगह आषाढ़ के महीने तक चले जाना चाहिए और मार्गशीर्ष महीना व्यतीत करने पर वर्षायोग के स्थान को छोड देना चाहिए। तथा कितना ही प्रयोजन क्यों न हो, परन्तु श्रावण कृष्ण चतुर्थी तक वहाँ अवश्य पहुँच जाना चाहिए। और प्रत्येक स्थिति में कार्तिक शुक्ला पंचमी तक वर्षायोग के स्थान पर चले जाना चाहिए। यदि किसी दुर्निवार उपसर्ग आदि के कारण वर्षायोग के उक्त प्रयोग में अतिक्रम करना पड़े, तो साधु-संघ को प्रायश्चित्त लेना चाहिए।254
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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