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________________ विहार चर्या 233 हैं फिर उड़ जाते हैं। वैसे ही श्रमण आहार-पानी के लिए क्षणिक रूप से नगर में आते हैं, पश्चात् वे वन वापिस चले जाते हैं। अनियत विहार की महत्ता बतलाते हुए कहा कि "अनियत विहारी साधु को सम्यग्दर्शन की शुद्धि, स्थितिकरण, रत्नत्रय की भावना व अभ्यास, शास्त्र कौशल, तथा समाधिमरण के योग्य क्षेत्र की मार्गणा, इतनी बातें प्राप्त होती हैं। अनियत विहारी को तीर्थंकरों के जन्म, निष्क्रमण, ज्ञान आदि के स्थानों का दर्शन होने से उसके सम्यग्दर्शन में निर्मलता होती है। अन्य मुनि भी उसके संवेग वैराग्य, शुद्ध लेश्या, तप आदि को देखकर वैसे ही बन जाते हैं, अतः उसे स्थितिकरण होता है। (तथा अन्य श्रमणों के गुणों को देखकर वह स्वयं भी अपना स्थितिकरण करता है) परीषह सहन करने की शक्ति प्राप्त करता है। देश-देशान्तर की भाषाओं आदि का ज्ञान प्राप्त करता है। अनेक आचार्यों के उपदेश सुनने के कारण सूत्र के विशेष अर्थ व अर्थ करने की अनेक पद्धतियों का परिज्ञान होता है। अनेक मुनियों का संयोग प्राप्त होने से साधु के आचार-विचार आदि की विशेष जानकारी हो जाती है।228 वीतरागी श्रमण वसतिका, उपकरण, गाँव, नगर, स्वसंघ, श्रावकलोक, इन सभी में ममत्व रहित हैं। अतः वे अनियत विहारी ही होते हैं। विहार करते समय यदि जल आदि में प्रवेश करना पड़े तो "श्रमण को प्रवेश के पूर्व पाँवों आदि अवयवों से सचित्त व अचित्त धूलि को दूर करके, जल से बाहर आने तक, जब तक पाँव न सूख जाए, तब तक ज़ल के समीप ही खड़ा रहे। बड़ी नदी को पार करने के पूर्व, तट पर सिद्ध वन्दना करके दूसरे तट की प्राप्ति होने तक के लिए शरीर, आहार आदि का प्रत्याख्यान करना चाहिए। प्रत्याख्यान करके नौका वगैरह पर आरूढ़ होवे और दूसरे तट पर पहुँचकर अतिचार दूर करने के लिए कायोत्सर्ग करना चाहिए।229 विहार करते समय श्रमण, बैलगाड़ी, हाथी की सवारी, डोली, रथ आदि बहुत बार जिस मार्ग से चल चुके हों, सूर्य आदिक के आताप से जो व्याप्त हो चुका हो, ऐसे प्रासुक मार्ग पर चलते हैं।230 और इस तरह से उनके लिए रात्रि विहार सुतरां निषिद्ध हो जाता है। क्योंकि सूर्य का आताप न होने से रात्रिकालीन मार्ग अप्रासुक हो जाता है। समुचित प्रकाश का अभाव होने से ईर्या- समिति नहीं पाली जा सकती है, अतः अहिंसा भी नहीं पल सकती है। इसके अलावा भी रात्रि में सम्भावित दुर्घटनाएँ, लोक निन्दा आदि अनेक विवादों से स्वतः बच जाता है। अतः संयमी मुनि को प्रासुक और सुलभ- वृत्ति योग्य क्षेत्रों एवं काल का अवलोकन करना योग्य है। जहाँ गमन करने से जीवों को बाधा न हो, जो त्रस जीवों व वनस्पतियों से रहित हो, जहाँ बहुत पानी व कीचड़ न हो, वह क्षेत्र प्रासुक है।231 ऐसे प्रासुक क्षेत्र में श्रमण अपनी गमन-क्रिया करते हैं। गमन में विशेष सावधानी रखते हुए युग- प्रमाण भूमि को देखते हुए, बीज, घास, जल त्रस आदि जीवों से बचते हुए चले। तथा वर्षा कुहासा आदि के होने पर न चले। ऊपर-नीचे देखता हुआ, वार्तालाप व हँसता हुआ भी नहीं चले। हिलते हुए पत्थर, लकड़ी, ईट आदि पर पैर रखकर भी नहीं
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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