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________________ 232 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा विहार चर्या : विहार शब्द "वि" उपसर्ग पूर्वक "ह" धातु से छन् प्रत्यय पूर्वक बना है। इसका अर्थ है - हटाना, दूर करना, भ्रमण, सैर करना आदि। यहाँ जैनधर्म की परम्परा व उसकी आत्मा पर सूक्ष्मता से विचार करते हुए "विहार चर्या" का यह अर्थ किया जा सकता है कि, भ्रमण (विहार) करते हुए श्रमणों द्वारा अपने परिणामों से राग-द्वेष को हटाने रूप क्रिया को "विहार चर्या" कहते हैं। परन्तु वे पृथ्वी पर पद-विहार करते हुए भी किसी प्राणी को पीडा नहीं पहुँचाते, अपितु उन जीवों के समक्ष दया के अवतार रूप में ही सदा उपस्थित रहते हैं। उन्हें देखकर कल्पना मेरा स्वयंवरण करती हुयी कहती है कि, वे मुक्तिदूत श्रमण, चतुर्गति में विहार (भ्रमण) करते भव्य जीवों को, चतुर्गति से विहार ( हटाना) के प्रेरक निमित्त होने के लिए ही शायद "विहारचर्या" के विकल्प के वश होते है। सम्भवतः, इसी कारण साधु को चलते-फिरते सिद्ध कहा गया है। चलते-फिरते इन सिद्ध-श्रमणों को देखकर निरन्तर मत्य के आलिंगन में बँधे संसारी भव्य जीवों को उतना ही आनन्द आता है, जितना कि, दीर्घकाल से बिछड़ा स्तन पान करने वाला पुत्र अपनी माँ की ममता-मयी मूर्ति को देखकर आनन्दातिरेक से अश्रुधारा बहाता है। उस शिशु का जीवन उसकी पुष्टि व तुष्टि ही माँ के आंचल में ही है। अतः अत्यन्त आह्लादकारिणी माँ को देखकर वह प्रसन्न क्यों नहीं होगा ? उसी तरह श्मशान के वातावरण में पल रहे भव्य जीव, जब अमरत्व की कथा कहने वाले श्रमणों को देखते हैं, और उनसे मधुर वचनामृत रूपी दुग्ध के सेवन की आशा होती है। तो उन्हें देखकर भव्य जीवों को सन्तुष्टि क्यों नहीं होगी ? अर्थात् अवश्य होगी। अतः श्रमणों की विहार चर्या जीवों को संसार से विहार का मंगल संदेश देती है कि, किस तरह राग-देश से दूषित लोक में भी उनसे अप्रभावित रहकर आत्म साधना की जाती है। जगत से अप्रभावित रहकर उनको सहज प्रभावित करने वाले जैन श्रमणों की यह एक आवश्यक और विशिष्ट चर्या है। अतः वे भिक्षाचर्या में, एकान्तवास आदि में कलह आदि के त्याग रूप विहार चर्या करते हैं। वे बिना किसी अपेक्षा के हवा और पानी की तरह बहते हैं, और स्वोपकार के साथ परोपकार भी करते हैं। इसीलिए इनको अतिथि तथा अनियतविहारी भी कहा जाता है। आचार्य शिवार्य श्रमण को अनियत विहारी बतलाते हुए कहते हैं कि "जो समाधि मरण के योग्य है, जिसने मुक्ति के उपायभूत लिंग को धारण किया है, जो शास्त्राध्ययन करने में तत्पर है, पाँच प्रकार का विनय करने वाले, अपने मन को वश में करने वाले ऐसे श्रमणों के लिए ग्राम नगर आदिक अनियत क्षेत्र में विहार करना चाहिए।227 श्रमणों की वृत्ति पक्षी समान होती है, जैसे पक्षियों का किसी एक स्थान विशेष से लगाव नहीं होता है। वे स्वतन्त्र आकाश में विचरण करते हैं, परन्तु जहाँ दाना-पानी मिलता है, वहाँ क्षणिक रुकते
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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