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________________ जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा जिसने दान दिया है उन सबमें प्रीति होना, कुशल अभिप्राय, प्रत्यक्ष फल की आकांक्षा न करना, निदान नहीं करना, किसी से विसंवाद नहीं करना आदि, दाता की विशेषताएं हैं। 218 और यह दान विधि दाता द्वारा स्वयं की जाती है क्योंकि 230 "धर्मेषु स्वामिसेवायां पुत्रोत्पत्तौ श्रुतोद्यमे । भैषज्ये भोजने दाने च प्रतिहस्तं न कारयेत । । - अर्थात् धर्म और स्वामि सेवा, पुत्र की उत्पत्ति, विद्याभ्यास, औषधिपान, भोजन और दान आदि दूसरों के हाथ से नहीं कराये जाते । स्वामी के अभाव में दिया गया दान जैन श्रमण-ग्रहण करते नहीं हैं। वर्तमान अधिकांश श्रमण संघों में श्रमण अपना सम्पूर्ण सामान जिसमें आहार पानी शयनादिक के लिए प्याल आदि की सामग्री लेकर चलते हैं। तथा श्रेष्ठिवर्ग द्वारा व्यवस्थापित नौकरों के द्वारा आहार बनता है और कभी-कभी वे भी आहार देते हैं । वस्तुतः यह शिथिलाचारी वेषी मात्र हैं, श्रमण नहीं हैं। आहार की इस प्रकार की विस्तार चर्चा "दिगम्बर जैन मुनिसंघ और सदोष आहार दान पर विचार " में व्र. हीरालाल खुशालचन्द दोशी फलटण ने की है, यहाँ तो संकेत मात्र है। श्रमण के लिए नवकोटि से ही शुद्ध आहार का विधान दिगम्बर परम्परा में मिलता है, परन्तु स्याद्वाद मंजरी (श्वे. ) में पंचकोटि से शुद्ध आहार ग्रहण की बात आती है । वहाँ कहा है कि "जैन मुनियों के वास्ते सामान्य रूप से संयम की रक्षा के लिए नव कोटि विशुद्ध आहार ग्रहण करने की विधि बतायी गयी है । परन्तु यदि किसी कारण से कोई द्रव्य-क्षेत्र - काल भावजन्य आपदाओं से ग्रस्त हो जाए और उसे कोई मार्ग सूझ न पड़े, तो ऐसी दशा में वह पाँच कोटि से शुद्ध आहार का ग्रहण कर सकता है यह अपवाद नियम है। परन्तु जैसे सामान्य विधि संयम की रक्षा के लिए है, वैसे ही अपवाद भी संयम की रक्षा के लिए है । अयोग्य आहार दाताओं का स्वरूप बतलाते हुए भगवती आराधनाकार ने कहा कि जो अपने बालक को स्तनपान करा रही है, और जो गर्भिणी है, ऐसी स्त्रियों का दिया हुआ आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए। अतिशय रोगी, वृद्ध, बालक, उन्मत्त, अन्धा, गूंगा, अशक्त, भययुक्त, शंकायुक्त, अतिशय नजदीक जो खड़ा हुआ है, जो दूर खड़ा हुआ है, ऐसे पुरुष से आहार नहीं लेना चाहिए। लज्जा से जिसने अपना मुंह फेर लिया है, जिसने जूता अथवा चप्पल पर पाँव रखा है, जो ऊंची जगह पर खड़ा है, ऐसे मनुष्य के द्वारा आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए। तथा खण्डयुक्त कड़की के द्वारा दिया गया आहार भी नहीं लेना चाहिए | 219
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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