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________________ आहार चर्या 229 हैं - इत्यादि अनेक विपरीतता प्रत्यक्ष प्रतिभासै और अपने आप को मुनि मानते हैं ; मूलगुणादिक के धारक कहलाते हैं।209 यहाँ पर पण्डित प्रवर टोडरमल भी सीमित सात्विक आहार के ही पक्ष में हैं। अतः आहारदाता को भी यह विवेक अपेक्षित है कि शीत या उष्ण काल के अनुसार तथा मुनि की वात, पित्त या कफ प्रधान प्रकृति जानकर, परिश्रम, व्याधि, कायक्लेश तप और उपवास आदि देख-जानकर उन्हें उसके अनुसार आहार देना चाहिए।210 कारण, आहार उदरस्थ होकर पाचनक्रिया शरीर में प्राण धारणादि शक्ति पैदा करता है, जिससे संयमपथ प्रबल होता है। परन्तु मुनि को अधिक आहार भी नहीं लेना चाहिए, उन्हें तो "उदर के चार भागों में से दो भाग तो व्यंजन सहित भोजन से भरे, तीसरा भाग जल से परिपूर्ण करे और चतुर्थ भाग पवन के विचरण के लिए रिक्त रखे।211 यह शरीर वैज्ञानिकों के अनुसार भी तर्कसंगत है। अतः वट्टकेर ने आहार की मात्रा बतलाते हुए कहा कि "साधारण पुरुष को अधिक से अधिक बत्तीस ग्रास प्रमाण आहार ग्रहण करना चाहिए। यह स्वस्थ पुरुष का सामान्यतः परिमाण है, वैसे आ. कुन्दकुन्द तो कहते हैं कि श्रमण इतना भोजन करे कि जिससे उसका पेट न भरे।273 श्वे. के औपपातिक सूत्र में "भक्तपान अवमौदर्य के प्रसंग में कहा कि - आठ ग्रास ग्रहण करने वाला अल्पाहारी, बारह ग्रास ग्रहण करने वाला अपार्द्ध अवमौदर्य, सोलह ग्रास वाला, अर्द्ध अवमौदर्य, चौबीस ग्रास वाला पौन अवमौदर्य, तथा इकत्तीस ग्रहण करने वाले को किंचित अवमौदर्य होता है।214 आचार्य वट्टकेर ने साधु के आहार ग्रहण करने के काल की मर्यादा बतलाते हुए कहा कि भोजन काल में तीन मुहुर्त लगाना वह जघन्य आचरण है, दो मुहुर्त लगाना वह मध्यम आचरण है और एक मुहुर्त लगाना वह उत्कृष्ट आचरण है।215 आहार ग्रहण विधि श्रमण का आहार विषयक पर्याप्त विवेचन एषणा समिति, स्थित भोजन, व एक भक्त, में हो गया है, एवं उनको योग्य कुल, कालादि में संकल्पानुसार आहार की विधि संकल्पानुसार मिल जाती है, तब वे नवधा- भक्ति पूर्वक भक्त दाता के सात गुण सहित क्रिया से दिया गया आहार ग्रहण करते हैं।216 नवधा भक्ति का स्वरूप बतलाते हुए कहा कि "मुनिराज का पडिगाहन करना, उन्हें उच्च स्थान पर विराजमान करना, उनके चरण घोना, उनकी पूजा करना, उन्हें नमस्कार करना, अपने मन, वचन, काय की शुद्धि और आहार की विशुद्धि करना, इस प्रकार दान देने वाले के यह नौ प्रकार का पुण्य अथवा भक्ति कहलाती है। दाता के सात गुण बतलाते हुए अकलंक देव ने कहा कि "पात्र में ईर्ष्या न होना, त्याग में विषाद न होना, देने की इच्छा करने वाले में तथा देने वालों में या
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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