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________________ जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा पुष्पोसहित - व्यंजनों के मध्य पुष्पावली के समान चावल रखा हो, शुद्ध गोपाहित - शुद्ध अर्थात् बिना कुछ मिलाये अन्न से अपहित अर्थात् मिले हुए शाक व्यंजन आदि । लेपकृत - जिसके हाथ लिप्त हो जाए, अलेपकृत- जिसके हाथ लिप्त न हो । पानक-सिक्थ रहित और सिक्थ सहित (पानक) ऐसा भोजन मिलेगा तो ग्रहण करूंगा। इस प्रकार के संकल्प पूर्वक आहारार्थ गमन करना चाहिए । 214 157 इसी प्रकार पात्र, दाता आदि अनेक प्रकार के संकल्प अपनी शक्ति के अनुसार ग्रहण करके आहारार्थ गमन करना चाहिए। संकल्पों के पूर्ण होने पर यदि भिक्षालाभ होता है तो प्रसन्नता नही और भिक्षा न मिलने पर दुःखी नहीं होना चाहिए। क्योंकि भ्रमण तो सुख-दुःख दोनों में आकुलता रहित मध्यस्थ रहता है । वह भिक्षा लाभ के लिए किसी सद्गृहस्थ की प्रशंसा या उनसे याचना नहीं करता है । श्रमण भिक्षाचर्या के लिए निकले, परन्तु अपना आगमन सूचित करने के लिए अस्पष्ट शब्दादि के संकेत नहीं करता, अपित बिजली की चमक के सदृश अपना शरीर मात्र दिखा देना ही पर्याप्त मानता है । ' जिस श्रावक के यहाँ श्रमण को आहार की विधि मिलती है वे पिच्छि और कमण्डलु को वामहस्त में एक साथ धारण करते हैं और दक्षिण कन्धे पर पंचागुलि मुकुलित दाहिना हाथ रखकर आहार स्वीकृति व्यक्त करते हैं। 158 श्रावक जब देखता है कि मुनिराज के संकल्पानुसार आहार-विधि उसके यहाँ मिल गयी है; तब वहाँ स्थित मुनिराज को तीन बार परिक्रमा देता है तब मनः शुद्धि, वचन शुद्धि, काय (आहार) शुद्धि कहकर उन्हें आहारार्थ घर में प्रवेश के लिए आग्रह करता है। सचित्त, तंग, गन्दे व अन्धकार युक्त स्थान में भ्रमण प्रवेश नहीं करते, क्योंकि संयम विराधना की आशंका रहती है। आहार ग्रहण के योग्य घर : श्रमण का आहार काल एवं गमन विधि का जैसे विधान है उसी तरह योग्य घर में आहार ग्रहण का भी विधान है। आदिपुराण में कहा है कि साधु जन को योग्य काल में भिक्षा लेनी और घर की पंक्ति को नहीं उल्लंघनी चाहिए 159। सीधी पंक्ति से तीन अथवा सात घर से आया हुआ प्रासुक ओदन आदि को आचिन्न " अनाचीर्ण" अर्थात अग्राह्य बताया है। 160 क्योंकि इसमें ईर्यापथ शुद्धि नहीं रहती । संदेह युक्त स्थान का प्रासुक - अप्रासुक की आशंका तथा सूत्रयुक्त ( शास्लोक्त ) या सूत्र प्रतिकूल तथा प्रतिषिद्ध, श्रमणों के उद्देश्य से बनाया गया एवं खरीदा गया आहार अग्राह्य है। 161 भिक्षा के लिए मुनि मौन - पूर्वक अज्ञात - अनुज्ञात अर्थात् परिचित अपरिचित, निम्न, उच्च तथा मध्यम कुलों की पंक्ति में निकलते हैं। तथा भिक्षा ग्रहण करते हैं। 102 वसुनन्दि के अनुसार वहाँ निम्न ( नीच) उच्च और मध्यम कुलों का अर्थ दरिद्र, धनी, एवं मध्यम गृहस्थों के घरों की पंक्ति में समान रूप से भिक्षार्थ भ्रमण करना किया है। 63 62
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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