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________________ आहार चर्या 211 सिद्ध भक्ति करने का विधान किया गया है, न कि अरहंत आचार्य आदि की भक्ति, क्योंकि ये आहारी हैं। स्वयं निराहारी बनने के लिए, परन्तु मजबूरीवश आहारार्थ गमन करते वक्त निराहारी सिद्ध को स्मरण कर चिन्तन करते हैं कि अहो! मैं भी कब आप जैसा निराहारी बनूँगा। आहारार्थ-गमन यह मेरी बहुत कमजोरी व परवशता है, और मैं एतदर्थ लज्जा का भी अनुभव कर रहा हूँ। विजयोदया टीका में कहा है कि भिक्षा और भूख के समय को जानकर अवग्रह अर्थात् आहार के लिए विधि हेतु संकल्प की प्रतिज्ञा ग्रहण करके ईर्या- समिति पूर्वक ग्राम, नगर आदि में श्रमण को प्रवेश करना चाहिए। वहाँ अपना आगमन बताने के लिए याचना या अव्यक्त शब्द न करें। विद्युतवद् अपना शरीर मात्र दिखला दें। मुझे कौन निर्दोष भिक्षा देगा ऐसा भाव न करें। अपितु जीव-जन्तु रहित, दूसरे के द्वारा रोक-टोक से रहित, पवित्र स्थान में गृहस्थ द्रारा पडगाहना (प्रार्थना ) किये जाने पर ठहरे। द्वार पर सांकल लगी हो या कपाट बन्द हो तो उन्हें न खोले। बालक, बछड़ा, मेंढ़ा और कुत्ते को लाँघकर न जावें। जिस भूमि में पुष्प, फल और बीज फैलें हों उस पर से न जावे। तत्काल लीपी गयी भूमि पर न जावे जिस घर में अन्य भिक्षार्थी भिक्षा के लिए खड़े हों उस घर में प्रवेश न करें। जिस घर के कुटुम्ब घबराये हों, जिनके मुख पर विषाद और दीनता हो वहाँ न ठहरें। भिक्षादान भूमि से आगे न जावें। गोचरी को जाते हुए न तो अतिशीघ्र चले न अति धीरे-धीरे चले और न रुक-रुक कर ही, निर्धन और अमीर के घर का विचार न करें। मार्ग में न ठहरें, न वार्तालाप करें, हँसी आदि न करे। नीच कुलों में प्रवेश न करें। शुद्ध कुलों में भी यदि सूतक आदि दोष हो तो वहाँ न जावे। द्वारपाल आदि रोके तो न जावे। जहाँ तक अन्य भिक्षाटन करने वाले जाते हों वहीं तक जावे। जहाँ विरोध के निमित्त हो वहाँ न जावे। दुष्टजन, गधा, भैस, बैल, सर्प आदि से दूर से ही बच कर जावें। मदोन्मत्त जनों से दूर रहे। स्नान विलेपन मण्डन और रतिक्रीडा में आसक्त स्त्रियों को न देखे, एवं धर्म कार्य के अलावा किसी के भी घर न जावे।154 संकल्प पूर्वक गमन का विधान : मूलाचारकार ने वृत्ति परिसंख्यान नामक चतुर्थबाह्य तप के प्रसंग में कहा है कि श्रमण को भिक्षा से सम्बद्ध कुछ संकल्प या अभिग्रह लेकर आहारार्थ गमन करना चाहिए जैसे: (1) दाता संकल्प ___ अर्थात् यदि वृद्ध जवान आदि संकल्पानुसार दाता विशेष ही मेरा प्रतिग्रह करेगा तभी उसके यहाँ स्कूँगा अन्यथा नहीं।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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