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________________ षडावश्यक/कायोत्सर्ग 197 ___ जो बैठकर आर्तध्यान या रौद्रध्यान रूप परिणाम कर रहे हैं उनका वह कायोत्सर्ग उपविष्टनिविष्ट कहलाता है। इनमें से प्रथम व तृतीय अर्थात् उत्थितोत्थित व उपविष्टोत्थित इष्ट फलप्रद एवं शेष अनिष्ट फलदायी हैं। कायोत्सर्ग के दोष : कायोत्सर्ग के बत्तीस दोष निम्न हैं:1. घोटक - __घोड़ा जैसे एक पैर को उठाकर अथवा झुकाकर खड़ा होता है उसी प्रकार से जो कायोत्सर्ग में खड़े होते हैं उनके घोटक सदृश यह घोटक नाम का दोष होता है। 2. लता - लता के समान अंगों को हिलाता हुआ जो कायोत्सर्ग में स्थित होता है उनके यह लता दोष होता है। 3.. स्तम्भ - जो खम्भे का आश्रय लेकर कायोत्सर्ग करते हैं अथवा स्तम्भ के समान शून्य हृदय होकर करते हैं, उसके साहचर्य से यह वही दोष हो जाता है अर्थात उनके यह स्तम्भ दोष होता है। 4. कुड्य - भित्ती-दीवाल का आश्रय लेकर जो कायोत्सर्ग से स्थित होते हैं उनके यह कुड्य दोष होता है। अथवा साहचर्य से यह उपलक्षण मात्र है। इससे अन्य का भी आश्रय लेकर नहीं खड़े होना चाहिए ऐसा सूचित होता है। 5. माला - पीठ /आसन आदि के ऊपर खड़े होना अथवा सिर के ऊपर कोई रज्जु वगैरह का आश्रय लेकर अथवा सिर के ऊपर जो कुछ वहाँ हो, फिर भी कायोत्सर्ग करना वह मालादोष है। 6. शबरबधू - भिल्लनी के समान दोनों जंघाओं से जंघाओं को पीड़ित करके जो कायोत्सर्ग से खड़े होते हैं उनके यह शबरबधू नाम का दोष है। 7. निगड़ - बेड़ी से पीड़ित हुए के समान पैरों में बहुत सा अन्तराल करके जो 'कायोत्सर्ग में खड़े होते हैं उनके निगड़ दोष होता है। 8. लम्बोत्तर - नाभि से ऊपर का भाग लम्बा करके कायोत्सर्ग करना अथवा कायोत्सर्ग में स्थित होकर शरीर को अधिक ऊँचा करना या अधिक झुकाना सो लम्बोत्तर दोष है। 9. स्तनदृष्टि - कायोत्सर्ग में स्थित होकर जिसकी दृष्टि अपने स्तनभाग पर रहती है उसके स्तन दृष्टि नाम का दोष होता है। 10. वायस- कायोत्सर्ग में स्थित होकर कौवे के समान जो पार्श्वभाग को देखते हैं उनके वायस दोष होता है।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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